हिंदी दिवस और हिंदी पखवाड़ों के आयोजन की औपचारिकता सारे देश
में जारी है | इन औपचारिकताओं से हिंदी का कितना भला होने वाला है, यह तो इतने सालों में भी जनता की समझ में नहीं आया | राजभाषा
दिवस, राजभाषा विभाग, राजभाषा
आयोग- इन सारे सफ़ेद हाथियों ने हिंदी को उसकी अन्य भारतीय बहन भाषाओं से दूर ला
कर खड़ा कर दिया |
मेरी नजर में हिंदी भाषा अपनी सारी भारतीय बहन
भाषाओं के साथ एक निर्णायक मोड़ पर खड़ी है | तकनीकी
क्रांति के इस युग में एक संभावना तो यह है की ये सारी भाषाएँ शिक्षा और रोजगार की
भाषा बन कर उभरे | वहीं एक संभावना यह है की अंग्रेजी का प्रभुत्त्व हिंदी के
साथ-साथ सारी भारतीय भाषाओं को हाशिये पर धकेल दे | अंग्रेजी
जिस तरह से शिक्षा और रोजगार की भाषा के रूप में भारतीय भाषाओं को विस्थापित कर
रही है, उसे देखते हुए ऐसी आशंका होना लाजमी भी है |
भाषा की राजनीति को परे रख जिस एक कदम से हम हिंदी के साथ-साथ
सारी भारतीय भाषाओं को फलने-फूलने में और राष्ट्रीय एकता फ़ैलाने में मदद दे सकते
हैं वो है पूरे भारत में भाषा के पठन-पाठन की त्रिभाषा प्रद्धति को लागू करना | मातृभाषा, हिंदी/भारतीय भाषा/ अंग्रेजी इस रूप में यदि तीन भाषाओं को
सारे राज्य में बच्चों को पढाना अनिवार्य कर दिया जाया तो भारत की भाषा की समस्या
का शाश्वत समाधान हो सकता है | यदि अहिन्दी भाषी राज्य अपने यहाँ हिंदी को बच्चों को दूसरी
भाषा के रूप में पढाये तो उसके बदले में हिंदी भाषी राज्यों को अपने
यहाँ कोई एक भारतीय भाषा बच्चों को अनिवार्य रूप से पढ़नी चाहिए | कल्पना
कीजिये की यदि बिहार के बच्चे मलयालम सीखे, उत्तर
प्रदेश में दूसरी भाषा के रूप में तमिल पढाई जाए, मध्य
प्रदेश अपने बच्चों को तेलुगु पढाये, राजस्थान
में कन्नड़ विद्यालयों में बच्चों को दूसरी भाषा के रूप में पढाई जाये और इसी
भांति भारत का हर राज्य अपने बच्चों को मातृभाषा, हिंदी(हिंदी
भाषी क्षेत्रों में कोई अन्य भारतीय भाषा) एवं अंग्रेजी, इन तीन भाषाओं की शिक्षा दे तो फिर हिंदी के साथ सारी भारतीय
भाषाएँ भी प्रगति करेंगी और सरकारी और प्राइवेट स्कूलों के बीच की जो भाषिक खाई है, उसे भी पाटा जा सकेगा |
हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के बीच संवाद अभी वक़्त की मांग
है | भारतीय भाषाओं में उच्च कोटि के मौलिक लेखन के साथ विश्व की
हर भाषा की उत्कृष्ट कृति के अनुवाद की व्यवस्था होनी चाहिए | साहित्यकारों
को उनका समुचित सम्मान मिलना चाहिए | जिस भाषा के साहित्यकार हाशिये पर धकेले जाते हो, उस भाषा के दिन गिने-चुने होते हैं | हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं को इन्टरनेट पर भी
बढ़ावा दिए जाने की जरुरत है |
मैं तो यही कहूँगा की हिंदी दिवस को हम यदि भारतीय भाषा दिवस
के रूप में मानते हुए हर भारतीय भाषा की प्रगति में अपना अंशदान देने का प्रण ले, तभी हम हिंदी के साथ ही समस्त भारतीय भाषाओं के प्रति अपना
कर्तव्य निभा पायेंगें |
इस अवसर
पर हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के बारे में लिखी अपनी एक पुरानी कविता आप लोगों
के समक्ष प्रस्तुत है -
हिंदी दिवस और हिंदी पखवाड़ों के आयोजन की औपचारिकता सारे देश
में जारी है | इन औपचारिकताओं से हिंदी का कितना भला होने वाला है, यह तो इतने सालों में भी जनता की समझ में नहीं आया | राजभाषा
दिवस, राजभाषा विभाग, राजभाषा
आयोग- इन सारे सफ़ेद हाथियों ने हिंदी को उसकी अन्य भारतीय बहन भाषाओं से दूर ला
कर खड़ा कर दिया |
मेरी नजर में हिंदी भाषा अपनी सारी भारतीय बहन
भाषाओं के साथ एक निर्णायक मोड़ पर खड़ी है | तकनीकी
क्रांति के इस युग में एक संभावना तो यह है की ये सारी भाषाएँ शिक्षा और रोजगार की
भाषा बन कर उभरे | वहीं एक संभावना यह है की अंग्रेजी का प्रभुत्त्व हिंदी के
साथ-साथ सारी भारतीय भाषाओं को हाशिये पर धकेल दे | अंग्रेजी
जिस तरह से शिक्षा और रोजगार की भाषा के रूप में भारतीय भाषाओं को विस्थापित कर
रही है, उसे देखते हुए ऐसी आशंका होना लाजमी भी है |
भाषा की राजनीति को परे रख जिस एक कदम से हम हिंदी के साथ-साथ
सारी भारतीय भाषाओं को फलने-फूलने में और राष्ट्रीय एकता फ़ैलाने में मदद दे सकते
हैं वो है पूरे भारत में भाषा के पठन-पाठन की त्रिभाषा प्रद्धति को लागू करना | मातृभाषा, हिंदी/भारतीय भाषा/ अंग्रेजी इस रूप में यदि तीन भाषाओं को
सारे राज्य में बच्चों को पढाना अनिवार्य कर दिया जाया तो भारत की भाषा की समस्या
का शाश्वत समाधान हो सकता है | यदि अहिन्दी भाषी राज्य अपने यहाँ हिंदी को बच्चों को दूसरी
भाषा के रूप में पढाये तो उसके बदले में हिंदी भाषी राज्यों को अपने
यहाँ कोई एक भारतीय भाषा बच्चों को अनिवार्य रूप से पढ़नी चाहिए | कल्पना
कीजिये की यदि बिहार के बच्चे मलयालम सीखे, उत्तर
प्रदेश में दूसरी भाषा के रूप में तमिल पढाई जाए, मध्य
प्रदेश अपने बच्चों को तेलुगु पढाये, राजस्थान
में कन्नड़ विद्यालयों में बच्चों को दूसरी भाषा के रूप में पढाई जाये और इसी
भांति भारत का हर राज्य अपने बच्चों को मातृभाषा, हिंदी(हिंदी
भाषी क्षेत्रों में कोई अन्य भारतीय भाषा) एवं अंग्रेजी, इन तीन भाषाओं की शिक्षा दे तो फिर हिंदी के साथ सारी भारतीय
भाषाएँ भी प्रगति करेंगी और सरकारी और प्राइवेट स्कूलों के बीच की जो भाषिक खाई है, उसे भी पाटा जा सकेगा |
हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के बीच संवाद अभी वक़्त की मांग
है | भारतीय भाषाओं में उच्च कोटि के मौलिक लेखन के साथ विश्व की
हर भाषा की उत्कृष्ट कृति के अनुवाद की व्यवस्था होनी चाहिए | साहित्यकारों
को उनका समुचित सम्मान मिलना चाहिए | जिस भाषा के साहित्यकार हाशिये पर धकेले जाते हो, उस भाषा के दिन गिने-चुने होते हैं | हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं को इन्टरनेट पर भी
बढ़ावा दिए जाने की जरुरत है |
मैं तो यही कहूँगा की हिंदी दिवस को हम यदि भारतीय भाषा दिवस
के रूप में मानते हुए हर भारतीय भाषा की प्रगति में अपना अंशदान देने का प्रण ले, तभी हम हिंदी के साथ ही समस्त भारतीय भाषाओं के प्रति अपना
कर्तव्य निभा पायेंगें |
इस अवसर
पर हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के बारे में लिखी अपनी एक पुरानी कविता आप लोगों
के समक्ष प्रस्तुत है -
कितनी भाषाओँ से कितनी बार
कितनी भाषाओँ से कितनी बार
गुजरते हुए मैंने जाना है की
हर भाषा संजोये होती है
एक अलग इतिहास, संस्कृति और सभ्यता
की हर भाषा में उसके बोलने वालों की हर
ख़ुशी और गम का सारा हिसाब-किताब मौजूद
होता है.
हर वो भाषा जो और भाषाओँ को मानती है बहन
और नही रखती उनकी प्रगति से कोई
डाह-द्वेष
उनको आकर छलती है कोई साम्राज्यवादी भाषा
कहती है की अब इस भाषा में नए समय को
व्यक्त नही कर सकते, पर चिंता क्यूँ है, मैं हूँ
ना!
और धीरे-धीरे इक भाषा दूसरी भाषा को
अपनी गुलामी करने को मजबूर करती है
उनको छोड़ देती है उन लोगों के लिए
जिनके मुख से अपना बोला जाना उसे नागवार
है
आखिर मजदूरों, भिखारियों, आदिवासियों,
बेघरों, वेश्याओं, यतीमों, अनपढों या
एक शब्द में कहे
तो हाशिये पर जीने वालों के लिए भी तो
कोई
भाषा होनी चाहिए ना?
कितनी भाषाओँ से कितनी बार गुजरते हुए महसूसा है मैंने
कितनी ममता होती है हर एक भाषा में
कितनी आतुर स्नेहकुलता से अपनाती है
वो हर उस बच्चे को जो उसकी गोदी में
आ पहुंचा है बाहें पसारे, बच्चा-
जिसे अभी तक तुतलाना तक नही आता नयी भाषा
में.
कितनी भाषाओँ से कितनी बार गुजरते हुए
मैंने महसूसा है की भाषा कभी भी
थोपकर नही सिखाई जा सकती,
जबतक अन्दर से प्रेम नही जागा हो,
भाषा जुबान पर भले चढ़े, दिल पर नही चढेगी.
कितनी भाषाओँ से कितनी बार गुजरते हुए
देखा है मैंने की सत्ता और बाजार ने
हर बार कोशिश की है, और अब भी कर रहे हैं
भाषा को अपना मोहरा बनाने की
पर भाषा है की हर बार आम आदमी के पक्ष
में
खड़ी हो गयी इस बात की परवाह किये बिना
की कौन खडा है सामने.
कितनी भाषाओँ से कितनी बार गुजरते हुए
जाना है की संवाद चाहती है भाषाएँ
भाषाओँ को बोलनेवाले लोग
भाषाओँ में लिखने वाले साहित्यकार
एक-दुसरे से
पर भाषा की राजनीति करने वाले
नही चाहते ऐसा और खडा कर देते है
सगी बहन जैसी भाषाओँ को एक-दुसरे के
विरूद्व
उनकी मर्जी के खिलाफ.
भाषाओँ के साथ दिक्कत यही है
की हर भाषा में चीखता हुआ इन्सान
सबसे दूर तक सुना जाता है
और अच्छे इंसानों की खामोशी बस उन्ही तक
सिमट कर रह जाती है.
भाषा को बचाए रखने के लिए
भाषा में अच्छे इंसानों की चीख अब बहुत
जरुरी है.
कितनी भाषाओँ से कितनी बार
गुजरते हुए मैंने जाना है की
हर भाषा संजोये होती है
एक अलग इतिहास, संस्कृति और सभ्यता
की हर भाषा में उसके बोलने वालों की हर
ख़ुशी और गम का सारा हिसाब-किताब मौजूद
होता है.
हर वो भाषा जो और भाषाओँ को मानती है बहन
और नही रखती उनकी प्रगति से कोई
डाह-द्वेष
उनको आकर छलती है कोई साम्राज्यवादी भाषा
कहती है की अब इस भाषा में नए समय को
व्यक्त नही कर सकते, पर चिंता क्यूँ है, मैं हूँ
ना!
और धीरे-धीरे इक भाषा दूसरी भाषा को
अपनी गुलामी करने को मजबूर करती है
उनको छोड़ देती है उन लोगों के लिए
जिनके मुख से अपना बोला जाना उसे नागवार
है
आखिर मजदूरों, भिखारियों, आदिवासियों,
बेघरों, वेश्याओं, यतीमों, अनपढों या
एक शब्द में कहे
तो हाशिये पर जीने वालों के लिए भी तो
कोई
भाषा होनी चाहिए ना?
कितनी भाषाओँ से कितनी बार गुजरते हुए महसूसा है मैंने
कितनी ममता होती है हर एक भाषा में
कितनी आतुर स्नेहकुलता से अपनाती है
वो हर उस बच्चे को जो उसकी गोदी में
आ पहुंचा है बाहें पसारे, बच्चा-
जिसे अभी तक तुतलाना तक नही आता नयी भाषा
में.
कितनी भाषाओँ से कितनी बार गुजरते हुए
मैंने महसूसा है की भाषा कभी भी
थोपकर नही सिखाई जा सकती,
जबतक अन्दर से प्रेम नही जागा हो,
भाषा जुबान पर भले चढ़े, दिल पर नही चढेगी.
कितनी भाषाओँ से कितनी बार गुजरते हुए
देखा है मैंने की सत्ता और बाजार ने
हर बार कोशिश की है, और अब भी कर रहे हैं
भाषा को अपना मोहरा बनाने की
पर भाषा है की हर बार आम आदमी के पक्ष
में
खड़ी हो गयी इस बात की परवाह किये बिना
की कौन खडा है सामने.
कितनी भाषाओँ से कितनी बार गुजरते हुए
जाना है की संवाद चाहती है भाषाएँ
भाषाओँ को बोलनेवाले लोग
भाषाओँ में लिखने वाले साहित्यकार
एक-दुसरे से
पर भाषा की राजनीति करने वाले
नही चाहते ऐसा और खडा कर देते है
सगी बहन जैसी भाषाओँ को एक-दुसरे के
विरूद्व
उनकी मर्जी के खिलाफ.
भाषाओँ के साथ दिक्कत यही है
की हर भाषा में चीखता हुआ इन्सान
सबसे दूर तक सुना जाता है
और अच्छे इंसानों की खामोशी बस उन्ही तक
सिमट कर रह जाती है.
भाषा को बचाए रखने के लिए
भाषा में अच्छे इंसानों की चीख अब बहुत
जरुरी है.