मंगलवार, 14 मई 2013

UPSC CIVIL SERVICE PT 2013 - DECISION MAKING QUESTIONS- SOLVE WITH GANDHI'S TALISMAN


यूपीएससी सिविल सेवा की प्रारंभिक परीक्षा में एक अहम् हिस्सा अब निर्णय क्षमता को जांचने वाले प्रश्नों का है | ये ऐसे प्रश्न हैं जो आपको प्रशासनिक निर्णय लेने की कसौटी पर कसते हैं | ये इस बात की जांच करते हैं कि कठिन निर्णय लेने की दुविधा पूर्ण घडी में आप सही निर्णय ले पाते हैं या नहीं?

 

निर्णय लेना या डिसीजन मेकिंग काफी सब्जेक्टिव होता है | किसी भी निर्णय को लेने के पीछे कई कारक तत्त्व होते हैं और किसी भी व्यक्ति की परवरिश और परिवेश उसके निर्णय लेने की क्षमता को काफी हद तक प्रभावित करते हैं | दूसरी बात कि कोई भी निर्णय कभी भी परफेक्ट नहीं हो सकता | हर निर्णय के अपने नफे-नुकसान होते हैं | आपको तो बस ये देखना है कि तत्काल और लम्बे समय में जनता का सबसे ज्यादा भला किस निर्णय से होगा यूपीएससी आपसे आशा करती है कि आप दुविधा और चुनौती की स्थितियों में सबसे उपयुक्त निर्णय लें |

 

वर्तमान में सी सैट में ८० प्रश्नों में ७-८  प्रश्न निर्णय क्षमता को जांचने के लिए पूछे जा रहे हैं इनका २०० अंकों के पत्र में १७.५ -२०  अंक का योगदान है | इनके लिए कोई निगेटिव मार्किंग नहीं है | दिए गए चार विकल्पों में एक से ज्यादा भी सही उत्तर हो सकते हैं | यूपीएससी ने २०१२ की परीक्षा से उत्तर अपने वेबसाइट पर डालने शुरू किये हैं जो कि काफी अच्छी बात है | सो, इस खंड में बेहतर प्रदर्शन आपके पीटी पास करने की संभावना को बढ़ा सकता है |

 

आइये, अब वर्ष २०१२ में इस खंड से आये प्रश्नों का विश्लेषण करे-

CSAT – 2012  QUESTION PAPER SERIES A

 

*

७४. अपने अधीनस्थ द्वारा तैयार किये गए प्रतिवेदन के सम्बन्ध में, जिसे अतिशीघ्र प्रस्तुत किया जाना है, आपके अभिमत भिन्न हैं | आपका अधीनस्थ प्रतिवेदन में दी गयी सूचना को सही ठहरा रहा है | आप क्या करेंगे?

क) अपने अधीनस्थ से स्वीकार कराएँगे कि वह गलत है |

ख) उसको परिणामों पर पुनर्विचार हेतु कहेंगे |

ग) प्रतिवेदन में आप स्वयं संशोधन कर लेंगे |

घ) अधीनस्थ को कहेंगे कि अपनी गलती को उचित न ठहराए |

 

यूपीएससी की उत्तर कुंजी के अनुसार इसका सही उत्तर क) एवं ग) है |

 

विश्लेषण- सही विकल्पों की संगतता का आकलन-

क)यहाँ पर विचार करने के मुद्दे हैं कि रिपोर्ट को अतिशीघ्र प्रस्तुत किया जाना है | अतः समय बहुत ही महत्तवपूर्ण घटक है | इसीलिए पहला विकल्प बनता है कि  आप अपने अधीनस्थ को समझायेंगे कि रिपोर्ट में ये गलतियाँ हैं और यदि वह सहमत है तो उसे रिपोर्ट को बदल कर अतिशीघ्र लाने के लिए कहेंगे | 

 

ग)दूसरा विकल्प है कि समय को ध्यान में रखते हुए आप खुद ही रिपोर्ट में आवश्यक संसोधन कर लगे | आप बॉस हैं और आपके अधीनस्थ की रिपोर्ट में संशोधन करने का आपको पूरा-पूरा प्रशासनिक अधिकार है |

 

गलत विकल्पों की अनुपयुक्तता का विश्लेषण-

विकल्प ख) की समस्या है कि समय की कमी को ध्यान में रखते हुए पुनर्विचार सही विकल्प नहीं है | अगर निर्णय काफी जटिल है और समय की कोई पाबन्दी नहीं, उस परिस्थिति में ये सही विकल्प हो सकता है |

विकल्प घ) तानाशाही रवैये को दर्शाता है | आपके अधीनस्थ ने रिपोर्ट तैयार की, आप सहमत नहीं है और आपकी असहमति तार्किक है तो आप उसका मार्गदर्शन कर उसे रिपोर्ट बदलने के लिए कह सकते हैं| मगर, अगर वह अपने दृष्टिकोण पर अडिग है और उसके पास अपने तर्क है जो उसकी दृष्टि में सही है तो बेहतर है कि समय की कमी को ध्यान में रखते हुए आप उस रिपोर्ट को खुद ही संसोधित कर ले |

 

इस प्रश्न का जवाब देते हुए इससे मिलती-जुलती निर्णय घटनाओं पर नजर डाल ले-

*कैग की २ जी घोटाले की रिपोर्ट पर उनके अधीनस्थ ऑडिटर सिंह जी  के सवाल- कि नुकसान के आकलन की विधि पर  उनकी आपत्तियों को नजरंदाज किया गया | भई, रिपोर्ट विनोद राय को देनी है, रिपोर्ट की जवाबदेही उनकी है, तो फिर रिपोर्ट तैयार करने में दृष्टिकोण तो उन्हीं का चलेगा ना |

 

*हलके-फुल्के मिजाज में इक और उदाहरण दे देता हूँ- अगर आप किसी सरकारी मंत्रालय में संयुक्त सचिव के पद पर कार्यरत हो और सीबीआई आपके मंत्रालय के खिलाफ जांच कर रही हो जिसकी रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट में जानी हो; उस परिस्थिति में सीबीआई को अपना अधीनस्थ समझने की गलती बिलकुल ना करे |

 

 

७५.इक प्रतिष्टित पुरस्कार के लिए जिसका निर्धारण मौखिक प्रस्तुतिकरण के आधार पर होना है, आप अपने ही बैच मेट के साथ प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं | प्रत्येक प्रस्तुतीकरण के लिए दस मिनट का समय है | आपको प्रस्तुतीकरण को ठीक समय से समाप्त करने को कहा है जबकि आपके मित्र को तय समय से ज्यादा समय दिया जाता है | आप क्या करेंगे?

क) इस भेदभाव के लिए अध्यक्ष के पास शिकायत दर्ज कराएँगे |

ख) समिति द्वारा दिए गए किसी भी औचित्य को नहीं सुनेंगे |

ग) अपना नाम प्रतियोगिता से वापस लेने की मांग करेंगे |

घ) विरोध करते हुए उस स्थान को छोड़ देंगे |

 

यूपीएससी की उत्तर कुंजी के अनुसार इसका सही उत्तर क) एवं घ) है |

 

यहाँ समस्या ज्यादा जटिल नहीं है | ऐसी परिस्थिति अगर स्कूल में भी किसी भाषण या वाद-विवाद प्रतियोगिता के दौरान आने पर यही सबसे सार्थक विकल्प हैं.

विकल्प ख) एवं ग) खोखले विकल्प हैं | आपके निर्णय का प्रभाव होना चाहिये | विकल्प क) एवं घ) में आपके निर्णय से हलचल मचना स्वाभाविक है क्यूंकि प्रश्न के हिसाब से यह इक प्रतिष्टित पुरस्कार है |

सीढ़ी सी बात है कि अगर आप अपने खिलाफ हो रहे अन्याय और भेदभाव का प्रतिकार नहीं कर सकते तो जनता को कहाँ से न्याय दिला पायेंगे |

 

७६. आप इक समयबद्ध परियोजना पर कार्य कर रहे हैं | परियोजना की पुनरीक्षण बैठक के दौरान आप यह पाते हैं कि आपके समूह के सदस्यों के द्वारा सहयोग में कमी के कारण परियोजना विलंबित हो सकती है | आप क्या करेंगे ?

क) अपने समूह के सदस्यों को उनके असहयोग के लिए चेतावनी देंगे |

ख) असहयोग के कारणों की जांच-पड़ताल करेंगे |

ग) समूह के सदस्यों को प्रतिस्थापित करने की मांग करेंगे |

घ) कारण प्रस्तुत करते हुए समय सीमा बढ़ाने की मांग करेंगे |

यूपीएससी की उत्तर कुंजी के अनुसार सही विकल्प क) एवं ख) हैं |

इस प्रश्न का विश्लेषण करे तो हम पाते हैं कि समयबद्ध परियोजना होने के कारण विकल्प ग) एवं घ) अनुपयुक्त हैं | विकल्प ख ) पर अमल करने के बाद अगर लगे कि असहयोग की कोई तार्किक वजह नहीं हैं तो आपके पास विकल्प क) के अलावा कोई अन्य रास्ता नहीं बचता |

 

७७. आप एक राज्य क्रीड़ा समिति के अध्यक्ष हैं | आपको इक शिकायत मिली है और बाद में यह पाया गया है कि कनिष्ठ आयु वर्ग के किसी पदक जीतने वाले एथलिट की आयु, आयु के दिए गए मानदंड से पांच दिन अधिक हो गयी है | आप क्या करेंगे?

क) छान-बीन समिति से स्पष्टीकरण देने को कहेंगे |

ख) एथलिट से पदक वापस करने को कहेंगे |

ग) एथलिट को अपनी आयु की घोषणा करते हुए न्यायलय से शपथ पत्र लाने को कहेंगे |

घ) क्रीड़ा समिति के सदस्यों से उनकी राय मांगेंगे |

 

इसका सही उत्तर क ) एवं घ ) है |

 

यहाँ प्रश्न से ऐसा प्रतीत होता है कि शिकायत मिलने के बाद जांच पूरी हो चुकी है | अतः स्पष्टीकरण एवं क्रीड़ा समिति के सदस्यों की राय इक औपचारिकता भर है जिससे ऐसा प्रतीत नहीं हो कि अध्यक्ष अकेले ही महत्तवपूर्ण निर्णय ले रहे है | ख ) और ग) विकल्प ही इस मामले की तार्किक परिणति होंगे | पर सहभागी निर्णय को बढ़ावा देने के लिए तथा निर्णय निर्दोष हो, इसके लिए ही विकल्प  क) एवं घ) को सही बताया गया है |

दूसरी बात कि ऐसे निर्णयों में नैसर्गिक न्याय के सिद्धांत का पालन अनिवार्य है | इस सिद्धांत के अनुसार किसी भी व्यक्ति को कोई दंड देने के पहले या उसके हितों के विपरीत निर्णय लेने के पहले उसे अपनी बात रखने का अवसर अवश्य मिलना चाहिये |

 

 

७८. आप एक प्राथमिकता परियोजना पर कार्य कर रहे हैं और सभी अंतिम तिथियों को पूरी तरह निभा

रहे हैं और इसी आधार पर परियोजना के दौरान अवकाश लेने की योजना बना रहे हैं | आपका आसन्न अधिकारी परियोजना की अविलम्बता बताकर आपका अवकाश अनुमोदित नहीं करता है | आप क्या करेंगे?

क) मंजूरी की प्रतीक्षा किये बिना अवकाश पर चले जायेंगे |

ख) बीमारी का बहाना बना कर अवकाश पर चले जायेंगे |

ग) अवकाश के आवेदन पर पुनर्विचार करने के लिए उच्चतर अधिकारी से बात करेंगे |

घ) आसन्न अधिकारी को बताएँगे कि यह न्यायसंगत नहीं है |

 

उत्तर कुंजी के अनुसार सही उत्तर ग) या घ) है |

 

विकल्प क) आपके उत्तरदायित्वहीन होने को दर्शाता है और विकल्प ख) दर्शाता है कि आप झूठे और मक्कार है | इस स्थिति में ग) और घ) ही सही विकल्प है |

 

७९. आप सुदूर क्षेत्र में जल आपूर्ति परियोजना पर कार्य कर रहे है | किसी भी हालत में परियोजना की पूरी लागत वसूल कर पाना असंभव है | उस क्षेत्र में आय का स्टार काफी नीचा है और २५ % जनता गरीबी की रेखा से निचे है | जलापूर्ति की कीमत निर्धारण का नियम लेते समय आप क्या करेंगे?

क) यह अनुशंसा करेंगे कि पूरी जलापूर्ति निशुल्क हो |

ख) यह अनुशंसा करेंगे कि सभी उपयोगकर्ता नल लगाने हेतु इक बार तय शुल्क का भुगतान करे और पानी का उपयोग निशुल्क हो |

ग) यह अनुशंसा करेंगे कि गरीबी रेखा से ऊपर के परिवारों के लिए इक निर्धारित तय मासिक शुल्क हो और गरीबी रेखा से निचे के परिवारों के लिए जलापूर्ति निशुल्क हो |

घ) यह अनुशंसा करेंगे कि उपयोगकर्ता जल के उपभोग पर आधारित शुल्क का भुगतान करे जिसमे गरीबी रेखा से ऊपर तथा निचे के परिवारों के लिए विभेदीकृत शुल्क निर्धारित किया जाए |

उत्तरकुंजी के अनुसार इसका सही उत्तर ग) और घ) है |

 

विकल्प क) मुद्रीय घाटे को देखते हुए तथा इस बात को ध्यान में रखते हुए निशुल्क सुविधा जल के दुरूपयोग को बढ़ावा देगा, अनुपयुक्त है |

विकल्प ख) गरीबी रेखा से नीचे के परिवारों पर ज्यादा बोझ डालता है (नल की स्थापना के लिए एकमुश्त शुल्क के रूप में ) और फिर जल आपूर्ति निशुल्क होने पर जल के दुरूपयोग की सम्भावना है |

विकल्प ग ) एवं घ) सामाजिक न्याय और सकारात्मक विभेदीकरण के साथ-साथ जल के दुरूपयोग की सम्भावना को भी न्यूनतम स्तर पर रखते है|

 

८०. एक नागरिक के रूप में आपको एक सरकारी विभाग से कुछ काम है | सम्बद्ध अधिकारी आपको बार-बार बुलाता है और आपसे अप्रत्यक्षतः बिना कुछ कहे रिश्वत देने के इशारे करता है | आप अपना कार्य कराना चाहते है | आप क्या करेंगे?

क) रिश्वत दे देंगे |

ख) ऐसा व्यवहार करेंगे मानों आप उसके इशारे नहीं समझ रहे हैं और अपने आवेदन पर डटे रहेंगे |

ग) रिश्वत के इशारों के सम्बन्ध में मौखिक शिकायत के साथ उच्चतर अधिकारी के पास सहायता के लिए जायेंगे |

घ) इक औपचारिक शिकायत भेजेंगे |

 

यूपीएससी की उत्तरकुंजी के हिसाब से इसका सही उत्तर ख) एवं ग) है |

 

यहाँ विकल्प क) के सही होने का सवाल ही नहीं उठता |

विकल्प ख ) सही होते हुए भी इक लचर विकल्प है | धारणा यह ली गयी है कि यदि आप उसके इशारे न समझने का व्यवहार करेंगे तो आजिज आकर वो आपका काम कर देगा | मगर मेरी धारणा में अगर वह अधिकारी आपको बार-बार बुलाकर परेशान कर रहा है तो वह बेशर्मी की मोटी खाल से ढका नंगा इन्सान है जिससे मरते दम तक बिना घूस लिए काम की आशा आकाशकुसुम की आशा जैसी ही है |

विकल्प ग) सही और तार्किक है |

विकल्प घ) भी दमदार है पर यूपीएससी ने किस हिसाब से इसे सही नहीं माना, वो मेरी समझ के परे है |

इक और अच्छा विकल्प जो यहाँ मौजूद नहीं है वह यह है कि आप सूचना के अधिकार में आवेदन देकर अधिकारी से पूछे कि इस कार्य को करने के लिए कितने समय की आवश्यकता है और इसपर अनावश्यक विलम्ब का कारण क्या है? आपको उत्तर भेजने के पहले आपका काम कर दिया जाएगा |  

 

 

वर्ष २०१२ एवं २०११ के निर्णय क्षमता परखने के लिए आये प्रश्नों के विश्लेषण के बाद इन प्रश्नों को हल करने के लिए कुछ व्यावहारिक सुझाव निम्नांकित हैं-

१.      अनिर्णय या निर्णय को अनिश्चित काल तक टालने या उसे अपने सर से किसी और के सर पर लादने वाले विकल्पों से बचे |

२.      सही विकल्प हमारे संविधान और कानूनों की सीमा रेखा में हो, इस बात का ख्याल रखे |

३.      नेचुरल जस्टिस अर्थात नैसर्गिक न्याय के सिद्धांत का हर निर्णय में पालन अनिवार्य है. इस सिद्धांत के अनुसार किसी भी व्यक्ति को कोई दंड देने के पहले या उसके हितों के विपरीत निर्णय लेने के पहले उसे अपनी बात रखने का अवसर अवश्य मिलना चाहिये |

४.      पक्षपात से अपने निर्णयों में बचे | हमेशा ध्यान रखे कि हमारे निर्णय निष्पक्ष और जनता के लिए होने चाहिये |

५.      निर्णय लेने में कोई संदेह हो तो गांधीजी के जंतर को याद जो हर एन सी ई आर टी की पुस्तक में आपको लिखा मिलता है-

 

 

 

 

“तुम्हें एक जंतर देता हूँ. जब भी तुम्हें संदेह हो या तुम्हारा अहम तुम पर हावी होने लगे, तब तो यह कसौटी आजमाओ. जो सबसे गरीब और कमजोर आदमी तुमने देखा हो, उसकी शकल याद करो, और अपने दिल से पूछो कि जो कदम उठाने का तुम विचार कर रहे हो, वह उस आदमी के लिए कितना उपयोगी होगा. क्‍या उससे उसे कुछ लाभ पहुंचेगा? क्‍या उससे वह अपने ही जीवन और भाग्य पर कुछ काबू पा सकेगा? यानि क्‍या उससे उन करोड़ों लोगों को स्वराज्य मिल सकेगा, जिनके पेट भूखे हैं और आत्मा अतृप्त है?

तब तुम देखोगे कि तुम्हारा संदेह मिट रहा है और अहम समाप्त होता जा रहा है.”

 

आपके निर्णय पॉजिटिव डिस्क्रिमिनेशन अर्थात सकारात्मक विभेदीकरण के सिद्धांत के अनुरूप हो सकते है |

६.      यूपीएससी के उत्तरों के लिए व्यवहारिकता के ऊपर सिद्धांतों को प्रश्रय दे | लिखित परीक्षा में जिसके उत्तर अब यूपीएससी अपनी वेबसाइट पर भी दे रही है, वो आपसे ऊँचे नैतिक मूल्यों वाले उत्तरों की ही आशा करेगी भलेही उसे यह पता हो कि जो उत्तर है उसे अमल में लाना टेढ़ी खीर है |

७.      जनता की किसी भी शिकायत को अनदेखा न किया जाए, यह आपके उत्तरों में झलकना चाहिये | आप जनता के लिए काम करेंगे, इस बात का हमेशा ख्याल रखे |

८.      दवाब में कोई निर्णय नहीं लें, सबकी सुने पर निर्णय वही ले जो आपको अपने दिल से सही लगता है | अपने निर्णय की स्वतंत्रता, निष्पक्षता और अप्रत्याशितता को बरक़रार रखे | यूपीएससी आपसे बुलंद निर्णयों की अपेक्षा रखती है जो राष्ट्रहित में हों |

 

बस इन्हीं सुझावों के साथ मैं आपसे विदा लेता हूँ. प्रारंभिक परीक्षा में सफलता के लिए ढेर सारी शुभकामनाएँ |

----केशवेन्द्र कुमार---

डायरेक्टर, हायर सेकेंडरी एजुकेशन

केरल

 

 

रविवार, 24 फ़रवरी 2013

UPSC CIVIL SERVICE INTERVIEW 2013,

सिविल सेवा २०१२ की मुख्य परीक्षा का परिणाम आ चुका है. सबसे पहले तो मैं उन सफल प्रतिभागियों को बधाई देना चाहूँगा जिनके नाम सफल लोगों की सुनहरी सूची में है. और, उन लोगों से जिन्हें इस बार सफलता नही मिली है, उनसे मैं यही कहना चाहूँगा की फिर से एक ईमानदार कोशिश करे- स्वविश्लेषण कर अपनी तैयारी की कमजोरियों को दूर करे और याद रखे कि- कोशिश करने वालों की हार नहीं होती.

सफल प्रतिभागियों के पास समय वाकई कम है. अगले महीने से ही साक्षात्कार शुरू हो रहे हैं और इसी थोड़े समय में आपको अपने व्यक्तित्व में धार लगानी है. आपको साक्षात्कार बोर्ड के सामने अपने आपको सम्पूर्णता में सामने रखना है अपनी मानवीय खूबियों-खामियों के साथ. मेरी सलाह यही है की चिंता में अपना सर खुजाने की जगह उपरवाले का शुक्रिया अदा करते हुए आगे की तैयारियों में जुट जाये.

साक्षात्कार की औपचारिकताओं पर मेरी एक पुरानी पोस्ट ब्लॉग पर मौजूद है. ये चीजें महत्वपूर्ण है पर बहुत ज्यादा नहीं. साक्षात्कार बोर्ड के लोग आप सिविल सेवा के लिए कितने उपयुक्त है, इसे जांचने-परखने के लिए बैठे हैं. इसलिए आपके अन्दर क्या है, यह उनके लिए ज्यादा मायने रखता है. हालांकि, बाहरी व्यक्तित्व भी गरिमामय हो, इस बात का ध्यान रखना जरुरी है.

तो, साक्षात्कार के दिन क्या पहनना है, किस तरह के कपड़े आपके व्यक्तित्व की सही  झलक देंगे, प्रमाणपत्र, बायोडाटा जैसी आवश्यक  औपचारिकताए ३-४ दिनों के अन्दर निपटा ले. इनके बाद आपको अपने साक्षात्कार के केंद्र बिंदु पर ध्यान देना है.

सबसे पहले आपने प्राथमिक परीक्षा और मुख्य परीक्षा के फॉर्म को भरने में जो जानकारियां भरी हैं, उनकी एक कॉपी ले अपनी एक डायरी या नोट बुक में साक्षात्कार के संभावित टॉपिक का चयन करे.

कुछ संभावित टॉपिक इस प्रकार हैं-

१. आपकी शैक्षिक पृष्ठभूमि - आपने जिस विषय से स्नातक एवं उससे ऊपर का अध्ययन किया है उसकी एक स्तरीय जानकारी होना आपके लिए जरुरी है. वर्तमान में उस विषय से जुड़े मुद्दे जो ख़बरों में हो उसकी भी जानकारी आपके लिए अनिवार्य है.

२. आपकी पारिवारिक पृष्ठभूमि

३. आपका गृह राज्य- उसका इतिहास-भूगोल-राजनीति-कला-संस्कृति और वहां वर्तमान में चर्चा में रही ख़बरें जो राष्ट्रीय स्तर पर भी चर्चा में रही हो .

४. आपका गृह जिला- वहां की खास बातें, वहां का प्रशासन, अगर आपको वहां का जिला कलक्टर या पुलिस कप्तान का कार्यभार दिया जाये तो क्या बदलाव लायेंगे.

५.अगर आप कही दुसरे राज्य में कार्य कर रहे हैं तो उस राज्य और जिले के बारे में भी महत्वपूर्ण जानकारियां जुटाना जरुरी है. जैसे पश्चिम बंगाल के छात्रों या वहां काम कर रहे लोगों के लिए विवेकानंद एवं रामकृष्ण मिशन, नक्सलवाद, बंगाल का विकास, बंगलादेशी शरणार्थियों और आप्रवासियों की समस्या जैसे मुद्दे पर विस्तृत जानकारी जरुरी है.

६,भारत के इतिहास, भूगोल, वर्तमान, भविष्य, यहाँ की कला-संस्कृति-सभ्यता- धर्म-साहित्य- प्रशासन-राजनीति जैसे मुद्दों पर आपके पास समुचित जानकारी होनी चाहिए.

७.अंतर्राष्ट्रीय संबध -खासकर भारत के विदेश संबंधों के बारे में आपकी स्पष्ट राय होनी चाहिए. अभी खासकर श्रीलंका, पाकिस्तान, ईरान, उत्तर कोरिया, मालदीव, चीन, अमेरिका, ब्रिटेन जैसे देशों के संबंध के बारे समुचित जानकारी जुटाए,

८.आपने सेवाओं की जो प्राथमिकता दी है, उसके स्पष्ट और तर्कपूर्ण उत्तर आपके पास होने चाहिए. और आपके उत्तरों से ऐसा नही लगना चाहिए की आप किसे सर्विस को कम करके आंक रहे हैं .
उदाहरण के लिए यदि आपकी पहली प्राथमिकता आईएएस और दूसरी आईएफएस है तो उसका कारण आपसे पूछा जा सकता है. अगर आपने कुछ अनोखी प्राथमिकताएँ दी है, तो सवाल पूछे जाने की संभावनाएं ज्यादा होती है. जैसे किसी की प्रथम चॉइस अगर IRS या आईपीएस हो तो 'क्यूँ 'का आपके पास संतोषजनक उत्तर होना चाहिए.

९. राज्यों की प्राथमिकताओं पर भी सवाल हो सकते हैं. ईमानदार जवाब काफी है. हर किसी के अपने गृह राज्य या नजदीक के राज्य या पसंद के राज्य में जाने के अपने -अपने कारण होते है. उसे विश्वस्तपूर्ण रूप में बताना काफी है. हाँ, बोर्ड को ये नही लगना चाहिए की आप समस्याग्रस्त राज्यों से भागने की चेष्टा कर रहे हैं.

१०. बजट के बारे में मुख्य जानकारियां आपके पास होनी चाहिए.

११. समसामयिक मुद्दों  जैसे CAG, भ्रष्टाचार, बलात्कार, महिलाओं के विरुद्ध अपराध, जनांदोलन का बदलता स्वरुप जैसे मुद्दों पर आपके पास एक संतुलित और तार्किक राय होनी चाहिए. अति से बचे. हमेशा ध्यान रखे की विचारों में बुध्ध के मध्यम  मार्ग का पालन हमेशा श्रेयस्कर होता है. मूल्यों पर अटल रहे पर विचारों में लचीलापन बनाये रखे. आपके खुद के विचार समय के साथ कैसे बदलते हैं , इसका विश्लेषण करने पर आप इस बात की उपयोगिता समझ पाएंगे. अपने विचारों के साथ दूसरों (बोर्ड के सदस्यों ) के विचारों का भी आदर करे और हठधर्मिता से बचे.

१२. पाठ्येतर गतिविधियों में अगर आपकी सहभागिता रही है तो उसके बारे में पूरा जानकारी जुटा कर रखे.

१३. आपने फॉर्म में जो शौक फरमाए हैं(HOBBY) वो आपको शौक न दें, इसका ख्याल रखे. हॉबी से साक्षात्कार  में ढेर सारे सवाल आने की आशा रख सकते हैं. इसलिए, हॉबी में आपने जो- जो विषय दिए हैं, उसके बारे में आपके पास पूरी जानकारी होनी चाहिए. जैसे, अगर आपने किताबें पढना अपनी हॉबी में दिया है तो हाल में पढ़ी अच्छी किताबों के बारे में, आपके प्रिय लेखक एवं कवि के बारे में आपको जानकारी होनी चाहिए.  आपको साहित्यिक फेस्टिवल एवं पुस्तक मेलों के आयोजन के बारे में भी जानकारी होनी चाहिए. हॉबी पर मैंने एक विस्तृत आलेख दिया है जिसे आप एक बार देख सकते हैं.

१४.बहुत सारे परिस्थिति वाले सवाल आपसे पूछे जा सकते हैं जैसे-
   --अगर आप किसी नक्सल प्रभावित जिले में पोस्टेड हो तो नक्सलवाद से निपटने के लिए क्या कदम उठाएंगे?
---आपको ऐसे जिले में पोस्टिंग मिली है जहाँ पेयजल की भारी समस्या है, आप उससे कैसे निपटेंगे?
---आपके जिले में भूकंप या चक्रवात या बाढ़ जैसी कोई प्राकृतिक आपदा आने की चेतावनी मिली है. आप क्या-क्या कदम उठाएंगे?

इन सारे मुख्य विषयों पर पूछे जा सकने वालों सवालों की खुद से सूची बनाये और उनके जवाब तैयार करे. अपने साथियों के साथ पूरी गंभीरता से छद्म साक्षात्कार की तैयारी करे. जरुरत लगे तो कोचिंग संस्थाओं के छदम साक्षात्कार बोर्ड की सहायता भी ले सकते हैं. पत्रिकाओं से सफल प्रतिभागियों के साक्षात्कार पढ़े. उनसे आपको साक्षात्कार में पूछे जा सकने वाले प्रश्नों की विविधता का अंदाजा लगेगा. साक्षात्कार पर कुछ स्तरीय बुक भी ले सकते हैं. पत्रिकाओं में कम्पटीशन सक्सेस रिव्यु के साक्षात्कार वाले कॉलम और विश्लेषण से आपको काफी सहायता मिलेगी.


साक्षात्कार में नपे- तुले शब्दों में जवाब देना श्रेयस्कर है. जितना पूछा जाये, उतना ही जवाब दे. साक्षात्कार बोर्ड के सभी सदस्यों की और देखते हुए आई कांटेक्ट बनाये रखते हुए जवाब दे.

चेहरे पर स्वाभाविक सहज मुस्कान बनाये रखे. चेहरे पर चिंता या घबराहट को नहीं झलकने दें. काफी सहजता से साक्षात्कार के सहज प्रवाह में बहते चले.

जिस सवाल का जवाब न आता हो, ईमानदारी के साथ बोर्ड को बताये कि आपको उस सवाल का जवाब पता नहीं है. और आप उस बारे में जानकारी हासिल करेंगे.

अपनी तरफ से इन्ही शब्दों के साथ मैं आप लोगों की सफलता की दुआ करते हुए आप लोगों से विदा लेता हूँ. ढेर सारी बधाइयाँ और शुभकामनाएँ.


 

गुरुवार, 10 मई 2012

कब तक कोख में मारी जाएँगी बेटियाँ

आमिर खान के टीवी सीरियल सत्यमेव जयते ने वाकई अपने पहले ही एपिसोड से जनमानस में हलचल मचाना शुरू कर दिया है. भ्रूण हत्या जैसे ज्वलंत मुद्दे को काफी संजीदगी और संवेदनशीलता के साथ समाज के सामने लाकर वो समाज को आईना दिखाने का काम कर रहे हैं. हलचल बता रही है कि समाज को भी अपने चेहरे पर इतना बड़ा दाग-धब्बा पसंद नहीं आ रहा है और इस प्रोग्राम के बाद प्रशासन और जनता में काफी जागरूकता भी आयी है. राजस्थान में स्टिंग ऑपरेशन के द्वारा भ्रूण हत्या में डॉक्टरों की भूमिका को उजागर करनेवाले पत्रकारों की कहानी देखकर लगा कि वाकई समाज को बदलने की जद्दोजहद में लगे लोगों को कम ठोकरें नहीं कहानी पड़ती. मगर संतोष इस बात का है कि देर से ही सही बदलाव आने की शुरुआत हो रही है.

कन्या भ्रूण हत्या में सबसे विवश होती है वह माँ जिसे उसकी ही बेटी को मारने में हामी भरने को मजबूर कर दिया जाता है. जरुरत है कि वो इतनी मजबूत बन सके कि अपने बेटी को मारने की साजिश में लगे घर, परिवार और समाज के सामने बुलंदी से अपनी बेटी की ढाल बन कर खड़ी हो सके. वर्ष २००४ की फरवरी में इसी मुद्दे पर एक कविता लिखी थी जिसमे एक कन्या भ्रूण अपनी माँ से संवाद करती है. आपलोगों के सामने पेश है वो कविता -

ओ माँ! तुम सुन रही हो ना!

ओ माँ!
मेरी आवाज सुनो
मैं तुम्हारी बगिया में
अन्खुवाता बिरवा हूँ
मत तोड़ने दो इसे किसी नादान को
मत रौंदने दो इसे किसी हैवान को.

ओ माँ!
पुरुष बेटे के जन्म पर
खुशियाँ मनाता है
तुम क्यों नही खुशियाँ मनाती
बेटियों के जन्म पर
क्या इतनी कमजोर हो तुम
की मेरे दुनिया में आने से
पुरुषों की इस दुनिया में
खुद को असुरक्षित महसूस करती हो?

ओ माँ!
भूलती क्यों हो यह बात
की गर्भ में तुम भी रही होगी एक दिन
पुरुषों के दवाब से झुककर
तुम्हारी माँ ने यदि गर्भ में ही
तुम्हारी हत्या होने दी होती,
तो क्या होता?
सृष्टि की आदिमाता ने यदि
लड़कियों की भ्रूण-हत्या होने दी होती
तो शायद मानव जाति कब की
लुप्त हो चुकी होती.

ओ माँ!
जबतक मैं सुदूर अनंत में थी
मैंने कुछ नही माँगा
मगर, अब जब मैं तुम्हारे गर्भ में हूँ
धरा पर जन्म लेना हक़ है मेरा
मेरे इस हक़ के लिए
तुम्हे लड़ना होगा उनसे
जो स्रष्टा नही हैं
मगर संहार में लगे हैं.

ओ माँ!
लड़की जनने की आशंका से
क्यूँ मुरझाई हो तुम?
क्या खुद पर विश्वास नही,
या मुझ पर विश्वास नहीं?
पुरुष बेटों पर गर्व करता है
तुम बेटियों पर गर्व करना सीखो माँ.

ओ माँ!
जिन्दगी पर सिर्फ बेटो का ही हक़ नही
बेटियों का भी हक़ है बराबर
जिन्दगी सिर्फ बेटों की ही बपौती नही
बेटियों की भी 'ममौती' है.

ओ माँ!
मैं दुनिया को देखना चाहती हूँ
मैं जिन्दगी को जीना चाहती हूँ
मैं उस समाज, उस मानसिकता
को बदलना चाहती हूँ
जो बेटियों की राह में
सिर्फ जिन्दगी-भर ही नहीं
वरन जिन्दगी के पहले भी,
जिन्दगी के बाद भी
नुकीले कांटे बिछाती रहती है.

ओ माँ!
हौसला रखो, विश्वास रखो
आशा रखो, उम्मीद रखो
और मुझे इस दुनिया में आने दो
मैं जन्मने से पहले नही मरना चाहती
तुम भी इस पाप में मूक सहमति
दे कर जीते जी न मरो.
अपनी आत्मा को, अपने अंश को
अपनी मुक्ति के इस मधुर गीत को
अपनी बेटी को न मरने दो.

ओ माँ!
तुम सुन रही हो ना?
04 Feb 2004

शुक्रवार, 9 मार्च 2012

IPS ऑफिसर नरेंद्र की शहादत

मध्य प्रदेश कैडर के युवा IPS अधिकारी नरेन्द्र की खनन माफियाओं द्वारा हत्या की खबर झकझोरने वाली है. इस शोक की घड़ी में हम सब उनके परिवारवालों और सबसे बढ़कर उनकी पत्नी और अपनी बैचमेट मधु के साथ हैं. भगवान पर से कभी-कभी विश्वास डोलता हुआ महसूस होता है जब अच्छे लोगों के साथ ऐसी घटना होती है. इन खनन माफियाओं और उनका साथ देने वाले टुच्चे लोगों चाहे वो राजनीति में हो या प्रशासन में, को उनकी असली औकात और जगह (जेल) दिखाए जाने की सख्त जरुरत है.
मध्य प्रदेश में २००९ बैच के जांबाज ईमानदार IPS ऑफिसर नरेंद्र की हत्या के बाद बिहार में स्वर्णिम चतुर्भुज योजना में भ्रष्टाचार को उजागर करने पर मार डाले गए सत्येन्द्र डूबे और उन जैसे सारे ईमानदार लोगों की शहादत याद आ रही है. इन सारे शहीदों की वीरता को नमन और अपनी  एक पुरानी कविता से श्रद्धांजलि


ईमान मर नहीं सकता


आज के इस भयानक दौर में,
जहाँ ईमान की हर जुबान पर
खामोशी का ताला जडा है.
चाभी एक दुनाली में भरी
सामने धरी है ,

फ़िर भी मैं कायर न बनूँगा
अपनी आत्मा की निगाह में
फ़िर भी मैं, रत्ती भर न हिचकूंगा
चलने में ईमान कि इस राह पे।

मैं अपनी जुबान खोलूँगा
मैं भेद सारे खोलूँगा-
(बेईमानों- भ्रष्टाचारियों की
काली करतूतों के )
मैं चीख-चीख कर दुनिया भर में बोलूँगा-
ईमानदारी सर्वोत्तम नीति है।

मैं जानता हूँ कि परिणाम क्या होगा-
मेरी जुबान पर पड़ा खामोशी का ताला
बदल जाएगा फांसी के फंदे में
और फंदा कसता जायेगा-
भिंच जायेंगे जबड़े और मुट्ठियाँ
आँखें निष्फल क्रोध से उबलती
बाहर आ जाएँगी
प्राण फसेंगे, लोग हसेंगे
पर संकल्प और कसेंगे.

देह मर जायेगा मगर
आत्मा चीखेगी, अनवरत, अविराम-
''ईमान झुक नहीं सकता,
ईमान मर नही सकता,
चाहे हालत जो भी हो जाये,
ईमान मर नही सकता,
ईमान मर नही सकता.
-2004 -

(स्वर्णिम चतुर्भुज योजना में भष्टाचार को उजागर करने पर जान से हाथ धोने वाले 'यथा नाम तथा गुण' सत्येन्द्र डूबे तथा ईमान की हर उस आवाज को समर्पित जिसने झुकना गवारा ना किया बेईमानी के आगे. )

बुधवार, 2 नवंबर 2011

इटली आया नहीं, फ्रांस गया नहीं-केबीसी के पंच कोटि विजेता सुशील कुमार की स्वर्णिम सफलता



बिहार के मोतिहारी के रहनेवाले सुशील कुमार ने एक मिसाल पेश की है भारत के संघर्षरत युवाओं के सामने. महात्मा गाँधी की कर्मभूमि चम्पारण से सम्बन्ध रखनेवाले और महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना में कम्प्युटर ऑपरेटर की नौकरी करनेवाले यह युवक भारत के युवाओं के लिए एक प्रेरणा बनकर उभरा है.
हालाँकि कहनेवाले यह कह सकते हैं कि यह सफलता लौटरी में मिली सफलताओं जैसी ही है और ऐसे मौके हर किसी को नहीं मिलते. मगर, इस शख्श ने इस सफलता के लिए ११ सालों तक इंतजार किया है और इस मंच तक पहुचने के लिए हर संभव प्रयास उसने किये. अपने परिवार को सहारा देने के लिए स्कूली बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने तक का काम किया. इसलिए उनकी इस सफलता को उनके संघर्ष के आईने में देखते हुए उसे समुचित सम्मान दिए जाने की जरुरत है.
सुशील ने जिस हिसाब से इस खेल को खेला और जितने रिस्क लिए, वो भी काबिल-ए-तारीफ है. १ करोड़ के प्रश्न तक वो बस एक लाइफ लाइन प्रयोग कर पहुचे. उन्होंने अच्छे रिस्क भी लिए और किस्मत भी उनपर मेहरबान रही. कई बार उन्होंने अपने इन्ट्यूशन के सहारे बड़ा रिस्क लेते हुए सवालों के जवाब दिए.
मजेदार सवालों में एक करोड़ का सवाल था कि लाल बहादुर शास्त्री जी ने ललिता जी से अपनी शादी के समय खादी के कुछ कपडें के अलावा दहेज में और क्या लिया. इस सवाल का जवाब सुशील ने एक्सपर्ट राय के आधार पर ‘चरखा” आप्शन लॉक कर कर दिया. शायद इस उदाहरण से दहेज के पीछे भागती हमारी युवा पीढ़ी को कुछ प्रेरणा मिले.
सबसे मजेदार किस्सा तो पांच करोड़ के सवाल का रहा. सवाल था कि १८६८ में निकोबार द्वीप को ब्रिटेन के हाथों बेचने के साथ किस औपनिवेशिक शक्ति का भारत से अंत हो गया. आप्शन थे बेल्जियम, डेनमार्क, इटली और फ्रांस. सुशील का जुमला कि – “इटली आया नही, फ्रांस गया नहीं” श्रोताओं को लोटपोट करता रहा. फोन अ फ्रेंड से भी जब बात ना बनी तो अल्टीमेट रिस्क लेते हुए सुशील ने डबल डिप आप्शन लिया. इस आप्शन में अगर वे दो बार में भी सही जवाब नही दे पाते तो सीधे १ करोड़ से नीचे गिरकर १ लाख ६० हजार पर आ जाते. वाकई, उनके इस रिस्क लेने की हिम्मत को नमन.
अगर सुशील कुमार को केंद्र सरकार  मनरेगा के पोस्टर बॉय के तौर पर प्रयोग करे तो यह प्रौढ़ शिक्षा को बढ़ावा देने में और कामगार जनता को अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देने की प्रेरणा देने में काफी सहायक सिद्ध हो सकती है. सुशील कुमार की सपनीली सफलता की इस कहानी से ढेर सारे संघर्षशील युवा प्रेरित हो, इसी दुआ के साथ मैं एक बार फिर सुशील जी को तहे दिल से शुभकामनाएँ देता हूँ.
---केशवेंद्र कुमार--- 

रविवार, 4 सितंबर 2011

स्वप्न सच होते हुए


स्वप्न सच होते हुए

साथियों, एक लंबी चुप्पी के बाद मैं फिर से आप लोगों से इस ब्लॉग पर मुखातिब हो रहा हूँ. अभी फ़िलहाल केरल में होने की वजह से मैं सिविल सेवा की तैयारी के माहौल से थोडा सा कटा हुआ हूँ, पर फिर भी तैयारी में लगे युवा साथियों को प्रेरित करने का काम तो किया ही जा सकता है.

सबसे पहले तो मैं उन प्रतिभागियों को बधाई देना चाहूँगा जिन्होंने इस बार की प्रारंभिक परीक्षा में सफलता पाई है. और जो इस बार इस पड़ाव को पार नही कर पाए हैं, उनको बस यही कहना चाहूँगा कि “कोशिश करने वालों की हार नही होती.”

हाँ, इस बार मैं मुखातिब हो रहा हूँ उन लोगों से जो सिविल सेवा में आने का सपना तो देखते हैं पर जो अपनी परिस्थितियों के आगे मजबूर हैं, जिन्हें लगता है कि ज़माने की बाधाओं से वे अपने इस सपने को पूरा करने में सफल नहीं हो पाएंगे. मैं आपको सुनाता हूँ केशवेंद्र और रविकांत की कहानी.. सपनों के सच होने की कहानी.

केशवेंद्र यानि मैं बिहार के सीतामढ़ी जिले के एक मध्यमवर्गीय परिवार से आता हूँ. बचपन से ही अपने गुरुदेव नागेन्द्र सिंह के आशीर्वाद से हिंदी साहित्य में मेरी गहरी रूचि रही और बचपन प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, शरतचंद, रविन्द्र , दिनकर, निराला के साहित्य के सान्निध्य में गुजरा. माता-पिता की आँखों में सपना था कि उनके तीनों बच्चे अच्छी सरकारी नौकरी में आयें और जो संघर्ष उन्हें जीवन में करना पड़ा है, वह उनके बच्चों को  ना करना पड़े.

मेरे बाबूजी प्राइवेट प्रैक्टिस करनेवाले आयुर्वेदिक डॉक्टर हैं और आयुर्वेद के उत्थान-पतन के साथ हमारे घर ने भी अच्छे-बुरे दिन देखे हैं. माँ गृहस्थ महिला है, बहुत ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं है,पर हमेशा उनके होठों से हम बच्चों के लिए यही दुआ निकली कि बेटा, पढ़-लिख कर बड़ा ऑफिसर बन जा. पिता जी की  दूरदर्शी सोच ने शिक्षा को सबसे ज्यादा महत्व दिया और हम तीन भाइयों की पढ़ाई के लिए उन्होंने हमारे गांव के शिक्षक नागेन्द्र सिंह को रखा. गुरूजी की तारीफ में यही कहूंगा कि उन्हें बच्चों को पढ़ाने की कला बखूबी आती थी और वो बच्चों को बच्चा बनकर पढाने में यकीन रखते थे. साथ ही साहित्य और अध्यात्म में उनके लगाव ने हम तीनों भाइयों को गहरे तक प्रभावित किया. गीता और रामचरितमानस का सुंदरकांड गुरूजी की दुआ से हमारे जीवन का अभिन्न अंग बने.

मेरे जीवन को प्रभावित करने वाली एक और व्यक्तित्व के तौर पर मैं अपने नानाजी श्री उमेश चंद्र ठाकुर का नाम लेना चाहूँगा. नानाजी पुस्तकों के बहुत बड़े प्रेमी थे और बचपन में मैं जब भी ननिहाल जाया करता था, पुस्तकों के ढेर के साथ लौटता था. राजेंद्र प्रसाद की आत्मकथा का १९४७ का संस्करण, भागवद गीता एज ईट इज, सोमनाथ, भारतेंदु के सम्पूर्ण नाटक, निराला की अनामिका और अपरा, गाँधी जी की दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास जैसी कितनी किताबें उनके यहाँ से लाके पढ़ी होगी मैंने. उनसे पुस्तकों का यह प्रेम मुझे उपहार में मिला और इसने मेरे जीवन को कितना खुशहाल बनाया है यह मैं बता नहीं सकता. नानाजी की धर्म के प्रति तार्किक दृष्टि और वेद, उपनिषद, गीता की उनकी सटीक व्याख्या ने भी सभी धर्मों के प्रति एक आलोचनात्मक और स्वस्थ दृष्टिकोण बनाने में योगदान दिया.
पुस्तकों का यह प्रेम बच्चों की कहानी की पत्रिकाओं नंदन, बालहंस, लोटपोट, सुमन सौरव, कॉमिक्स से होता हुआ कादम्बिनी, विज्ञान प्रगति और ढेर सारी पत्रिकाओं के प्रति रहा. समाचार पत्रों के शनिवार और रविवार के विशेषांक भी काफी दिलचस्पी से पढ़ करता था मैं. बड़े भैया से बीबीसी सुनने की आदत लगी जो लंबे समय तक कायम रही.

बचपन से ही भाषण, वाद-विवाद,विज्ञान प्रदर्शनी में मेरी काफी रूचि रही और इन सब के लिए बाबूजी और गुरूजी की तरफ से काफी प्रोत्साहन भी मिला. इन सबमें सबसे बड़ी उपलब्धि मैं १९९८ में बाल विज्ञान कांग्रेस में चेन्नई में राष्ट्रीय स्तर पर भागीदारी को मानता हूँ. सरकारी स्कूलों में पढ़ कर भी इन उपलब्धियों की चमक ने मेरे आत्मविश्वास को हमेशा बुलंद रखा. यही वो समय था जब जिला स्तर की प्रतियोगिताओं में आईएस, IPS अधिकारीयों के हाथ से  पुरस्कार ग्रहण करते हुए मेरे मन में आता था कि इक दिन मैं भी इसी तरह बच्चों को पुरस्कार दे रहा होऊंगा.

बचपन से सातवीं कक्षा तक मैं रीगा मध्य विद्यालय का छात्र रहा, आठवीं कक्षा बभनगामा उच्च विद्यालय में गुजरी जो अपने अतीत के गौरव की जर्जर निशानी भर रह गया था. फिर नवमीं कक्षा में मैंने जिला स्कूल डुमरा में दाखिला लिया. आठवीं- दशमी कक्षा को मैं अपने शैक्षणिक जीवन के लिए बहुत अच्छा नही मानता. इन दो सालों में बहुत सारी बातों की वजह से मेरा प्रदर्शन बहुत अच्छा नहीं रहा, पर यही वो समय भी था जब मैंने अपने जीवन की दिशा निर्धारित की. बिहार के मध्यमवर्गीय परिवारों में सामान्य चलन है कि मैट्रिक की परीक्षा पूरी करने के बाद अगर बच्चा मेधावी है तो उसे इंजिनिअर-डॉक्टर बनाने की कवायद चालू हो जाती है. वहां पर मैंने लीक से हट कर कुछ नया सोचा.

यह वो समय था जब मेरे मन में सिविल सेवा की तैयारी कर आईएस बनने की बात कहीं-न-कहीं आ चुकी थी. पर मैं यह तैयारी अपने पैरों पर खड़े होकर करना चाहता था. अपने परिवार की आर्थिक स्थिति मैं देख रहा था और मैं अपने माता-पिता पर और बोझ नहीं बढ़ाना चाहता था. और जो राह मैंने चुनी, वह थी नौकरी में आकर सिविल सेवा की तैयारी करने की राह.

उस समय रेलवे में एक वोकेशनल कोर्स हुआ करता था-“ वोकेशनल कोर्स इन रेलवे कौमर्शिअल.” रेलवे के उस समय के ९ जोन रेलवे रिक्रूटमेंट बोर्ड के जरिये हर वर्ष इस कोर्स की ४० सीटों के लिए परीक्षा आयोजित किया करते थे जिसमें मैट्रिक की परीक्षा में उस साल शामिल होने वाले छात्र शामिल हो सकते थे. लिखित और मौखिक परीक्षा को पास करने और मैट्रिक की परीक्षा में ५५% अंक लाने पर इस कोर्से में ४० छात्रों को एक जोन में दाखिला मिलता था. फिर आपको सीबीएसई से आई-कॉम की परीक्षा ५५% अंकों के साथ उत्तीर्ण करने पर रेलवे में टिकट कलेक्टर या कौमर्शिअल क्लर्क के रूप में नियुक्ति मिलती थी.
मेरे मझले भैया इस परीक्षा को पास कर यह कोर्स कर रहे थे. मैंने भी निश्चय किया कि मैं इस जॉब को हासिल करने के बाद फिर अपने सपनों को पूरा करने को कदम आगे बढ़ाऊंगा. सो, मैट्रिक परीक्षा की तैयारी के साथ-साथ मैंने इस परीक्षा की भी तैयारी शुरू कर दी. इस परीक्षा की तैयारी मुझे मेरे आगे की तैयारियों के लिए तैयार कर रही थी- मैं अपनी रणनीति बनाकर पूरे सिलेबस को तैयार कर रहा था. और,पूर्व रेलवे की इस परीक्षा में सफलता पा कर मैं बिहार से बाहर कलकत्ता के बैरकपुर में भोलानंदा विद्यालय में अपने आगे की पढाई पूरी करने आ गया.   

बैरकपुर के दो साल मस्ती के नाम रहे. बिहार से बंगाल का यह सफर काफी बदलाव भरा था. हालाँकि, बैरकपुर में बिहार और उत्तर प्रदेश के ढेर सारे लोग भरे हुए थे, फिर भी बांग्ला भाषा से तो पाला पड़ ही रहा था. ऊपर से अंग्रेजी नही आने से स्कूल में भी शुरू में काफी संघर्ष करना पड़ा. पर, इन दो सालों ने ठीक-ठाक अंग्रेजी लिखना-पढ़ना सिखा दिया. हिंदी माध्यम से अंग्रेजी माध्यम में यह बदलाव भी अच्छा ही रहा. अब भी टाइम्स ऑफ इंडिया पेपर से दो-दो घंटे जूझने के दिन याद आते हैं तो खूब हंसी आती है. बैरकपुर की मस्ती में सिविल सेवा की तैयारी का लक्ष्य आँखों से थोडा ओझल सा हो गया. हाँ, इस दौर में डायरी लिखने और कवितायेँ लिखने में खूब दिल लगाया. और यही वाह समय था जब कोलकाता के पुस्तक मेलों से परिचय हुआ. दीवानों की तरह दो-दो दिन घूम कर किताबों की ढेर अपने संग्रह में खरीदना मेरे जीवन के सबसे यादगार अनुभवों में एक है. इसी समय हिंदी साहित्य की कई अच्छी पत्रिकाओं से नाता बना जो अब तक चल रहा है. दुर्गा पूजा की धूम, गोलगप्पों का स्वाद, साथियों के साथ हुगली नदी में रात में नौका भ्रमण, शांतिनिकेतन, और कोलकाता भ्रमण की यादें अब भी मन को लुभाती है. सिनेमा भी कम नही देखे वहां पर. और जब मन करे बैग उठा कर घर चल देना, ट्रेन तो अब अपनी ही थी. गाँधी संग्रहालय, साइंस म्युजिअम, विक्टोरिया मेमोरिअल, दक्षिणेश्वर, बेलुर मठ, तारापीठ, काली घाट, इंडियन म्युजिअम भुलाने की चीजें नहीं हैं.

बैरकपुर से आई-कॉम पूरा करने के बाद घर आया तो नौकरी में आने तक के ५-६ महीने को मैंने काफी अच्छे से यूज किया. इस समय में मैंने सनातन धर्म पुस्तकालय से ढेर सारी हिंदी साहित्य की किताबें पढ़ी और अरुण सर की कोचिंग में अंग्रेजी बोलने का अभ्यास किया. कुछ काफी अच्छे दोस्त मिले-मृत्युंजय, एजाज़, सरिता, मनीष आदि. साथ ही IGNOU से हिंदी स्नातक में दाखिला भी ले लिया. हिंदी विषय लेने पर घर-समाज के लोगों ने थोड़ी हाय-तौबा मचायी पर मैंने तो यह निर्णय काफी सोच-समझ कर लिया था, और किसी के कहने-सुनने से अपने सही निर्णय को ना बदलना शुरू से ही मेरी फितरत रही है.

२७ अप्रैल २००४ से मैंने सरकारी सेवा में अपने जीवन की शुरुआत की. छोटी से ट्रेनिंग के बाद मुझे कोलकाता के बीरभूम जिले में सिउरी रेलवे स्टेशन पर बुकिंग क्लर्क के रूप में नियुक्ति मिली. शुरुआत में भाषा की वजह से थोड़ी दिक्कतें आयी पर फिर धीरे-धीरे सब कुछ सही हो गया. स्टेशन पर १२ घंटे का रोस्टर था, बीच में नियमानुसार ब्रेक होने चाहिए थे पर नयी गाड़ियों के कारण थे नहीं. ड्यूटी के साथ-साथ जो पहली प्राथमिकता थी, वो थी समय पर अपने स्नातक डिग्री को पूरा करना और वो मैंने किया.

सिविल सेवा में एक विषय के तौर पर हिंदी को चुनने के बारे में तो मैं शुरू से ही निश्चिन्त था पर दूसरे विषय के तौर पर इतिहास या राजनीति विज्ञान को चुनने में मैं काफी समय तक दुविधा में रहा. खैर, अंततः मुख्य परीक्षा में राजनीति विज्ञान से सामान्य अध्ययन में काफी सहायता मिलती देख मैंने उसे ही चुनने का निर्णय लिया. कोलकाता पुस्तक मेला और पटना में अशोक राजपथ की किताब की दुकानों में घूम-घूमकर लगभग सारी पुस्तकें जुटायी . साथ ही सिउरी में विवेकानंद ग्रंथागार तथा जिला पुस्तकालय का सदस्य बन कर भी काफी जरुरी किताबों और साहित्य का अध्ययन किया.

इस बीच में एक और बात ने मुझे सिविल सेवा की तैयारी करने को प्रेरित किया. पास के स्टेशन दुबराजपुर में मुझे काफी लंबे समय तक ड्यूटी करने को जाना पड़ा (२००६ की शुरुआत से) जहां १२ घंटे के रोस्टर की वजह से मैं सुबह ५ बजे ट्रेन से जाकर शाम में ६:३० बजे के आस-पास लौट पता था. उसमें भी रेस्ट बस एक ही दिन का था. इस मुद्दे को मैंने रेल प्रशासन के सामने कई बार उठाया पर उनका असंवेदनशील रवैया देख गुस्से में मन जल भुन उठा. मैंने इस गुस्से को भी अपनी तैयारी कि प्रेरणा बनाया. प्यार तो इस तैयारी की प्रेरणा था ही.

यह मेरी तैयारी का मुख्य समय था, सिउरी में स्टेशन प्रबंधक सुभाष दा के रूप में मुझे एक काफी अच्छे इंसान मिले थे जिनके साथ मैं अपनी भावनाओं को शेयर कर पता था और जो मेरा हौसला भी बढ़ाते थे. बादल दा और उनकी मंडली के तौर पर अच्छे साथी मिले थे जिनके साथ शाम में लौटते हुए अच्छा मनोरंजन होता था. साथ ही सिउरी स्टेशन पर अनंत दा की तितली की पाठशाला जो बाल श्रमिकों और यौन कर्मियों के बच्चों के लिए थी, का सदस्य बन कर भी काफी अच्छा लगा.

जून २००६ तक तो अपनी तैयारी जैसी-तैसी ही रही पर उसके बाद गंभीरता का स्तर बढ़ना शुरू हुआ. यह वह समय था जब मैं दो ट्रेनों के बीच के समय और ट्रेन में आने-जाने के बीच के समय में भी अपने अध्ययन में लगा रहता था. रविकांत मुझसे १ घंटे की ट्रेन यात्रा की दूरी पर उखड़ा स्टेशन पर बुकिंग क्लर्क के रूप में कार्यरत थे. २००६ की प्राथमिक परीक्षा में अपने प्रथम प्रयास में रविकांत की सफलता ने हम दोनों को काफी उत्साहित किया. रविकांत आशा-निराशा के बीच झूल रहे होने के कारन अपने कीमती दो महीनों का समय गवां चुके थे. खैर, उनकी हिंदी विषय की तैयारी को धार देने के लिए मैंने सप्ताह में एक बार उखड़ा जाकर वहां साथ-साथ रणनीति के साथ तैयारी की योजना बनायीं.

तैयारी के सिलसिले में विघ्न-बाधाएं कम नहीं थी. एक और तो बुकिंग क्लर्क के रूप में लगभग १० घंटे के आस-पास की पब्लिक डीलिंग की टफ जॉब, दूसरी और बंगाल के सुदूर जिले में होने के कारण हिंदी माध्यम की किताबों और पत्र-पत्रिकाओं की अनुपलब्धता. हाल यह था कि सारी-की-सारी पत्रिकाएँ मैं पोस्ट से मंगा रहा था. ऊपर से प्रोत्साहित करने वाले लोग कम और टांग खिंचाई करने वाले लोग ज्यादा थे. हमारे सपनों को शेखचिल्ली के हसीन सपने समझने वाले लोगों की कमी ना थी. खैर उनका मुँह हम अपनी सफलता से हमेशा के लिए बंद करना चाहते थे.

तैयारी के लिए मेरी रणनीति पाठ्यक्रम, बीते सालों के प्रश्नपत्र और फिर स्तरीय पुस्तकों से सिलेबस के सम्यक अध्ययन पर केंद्रित थी. रणनीति के लिए एक अलग डायरी बना कर राखी थी जिसमें अपने हर सबल और दुर्बल पक्ष का सम्यक विश्लेषण और अपने लिए रणनीति थी. यह वाह समय था जब रात को सबके सो जाने के बाद अपने क्वार्टर से बाहर निकल पीपल और बरगद के विशाल वृक्षों की छाँव और ठंडी हवा में टहलता हुआ मैं अपनी रणनीति बनाया करता था कि किस तरह मैं सिविल सेवा में टॉप कर सकता हूँ और उसके लिए किस विषय में मुझे कितने नंबर लाने होंगे. हिंदी के लिए तो धीरे-धीरे कर मैंने सारी किताबें जुटा ली थी, IGNOU के बी.ए और ऍम.ए के स्तरीय किताबों की उपलब्धता भी एक प्लस पॉइंट थी. पर राजनीति विज्ञान के लिए किताबों का संकलन बहुत अच्छा ना था. सिलेबस के कुछ पॉइंट कवर नहीं हो पा रहे थे. तब जाकर प्राथमिक परीक्षा के १५ दिनों पहले मझले भैया से ओ. पी. गाबा की तीन-चार किताबें मंगवाई जिससे राजनीतिक सिद्धांत वाले सारे मुद्दे कवर हुए.

प्राथमिक परीक्षा के लिए शायद १२-१५ दिनों की छुट्टी ली थी और यह सारा समय मैंने मुख्यतः राजनीति विज्ञान के छूटे हुए बिंदुओं को कवर करने में लगाया. यही वजह थी कि मैं सामान्य अध्ययन के रिविजन पर पूरा ध्यान नही दे पाया. खैर मेरी रणनीति थी १५० अंकों के सामान्य अध्ययन में ७५ अंक लाने की और ३०० अंकों के राजनीति विज्ञान में २२५ अंक लाने की. २००७ में पहली बार निगेटिव मार्किंग का प्रावधान किया गया था. उसे ध्यान में रखते हुए ४५० अंकों में ३०० अंक लाने का लक्ष्य पूरी तरह सुरक्षित था.

परीक्षा केंद्र मैंने कोलकाता में रखा था. परीक्षा के लिए गोले रंगने की काफी प्रैक्टिस की थी. खैर सेंटर पर मुझे और मेरे जैसे कुछ कम उम्र लोगों को देख कर परीक्षक ने मजाक में टिप्पणी की कि अगर ये लोग आईएस बन गए तो क्या होगा..मैंने तपाक  से जवाब दिया कि युवा हाथों में प्रशासन और भी असरदार बनेगा. खैर परीक्षा अच्छे से गयी. परीक्षा के बाद स्व-मूल्यांकन करना मेरी पुरानी आदत रही है. राजनीति विज्ञान में मेरी मार्किंग २१०+ थी और सामान्य अध्ययन में ६१+. कुल योग तो सही था पर सामान्य अध्ययन पेपर में कम नंबर को लेकर मेरे मन में चिंता थी. कहने का मतलब कि मैं प्राथमिक परीक्षा को लेकर पूरी तरह आश्वस्त नहीं था. वैसे भी, यह मेरा पहला प्रयास था.

खैर रिजल्ट के दिन जब धड़कते निगाहों ने कम्प्यूटर स्क्रीन पर पढ़ा कि मेरा नंबर सफल छात्रों की सूची में है तो दिल खुशी से झूम उठा. फिर तो काफी मशक्कत कर लता मैडम (Sr DCM) के सहयोग से छुट्टी मिली और मैं और रविकांत अपनी तैयारियों में जुटे. साधारणतः हमलोग सप्ताह में एक या दो दिन मिलकर अपने पढ़े हुए पर चर्चा करते थे और हिंदी साहित्य तथा सामान्य अध्ययन की साझी तैयारी करते थे. निबंध के पात्र में भी हम लोगों ने कुछ महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर निबंध की रूप-रेखा बना कर तैयारी की. पर समयाभाव के कारण हमलोग बस पढ़ कर कम चला रहे थे, लिखने की प्रैक्टिस काफी कम हो रही थी. मैंने हालाँकि जेरोक्स के पन्नों पर अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्ध, हिंदी में साहित्यकारों के ऊपर तथा वैसे विषयों पर नोट्स बनाये थे जिनपर जानकारी बहुत सारी किताबों में बिखरी पड़ी थी. 

मुख्य परीक्षा का केंद्र कोलकाता में था. परीक्षा के एक-दो दिन पहले मैं और रविकांत वहां पहुचे और वहां पर अपने रेलवे के दोस्तों उपेन्द्र और विवेकानंद के यहाँ रुके. पास में ही बेलुर मठ था, शाम में तैयारी की टेंशन और थकान मिटने तथा गंगाजी के सान्निध्य का आनंद लेने हमलोग वहां जाया करते थे.
थोड़ी चर्चा अपनी एक बड़ी भूल या लापरवाही की भी कर लूं. मोबाइल के ज़माने में साधारणतः कलाई घड़ी की आदत छूट सी गयी है लोगों में. ऐसा ही मेरे साथ भी हुआ था. सिउरी में याद आया तो मैंने सोचा कि कोलकाता जा ही रहे है, वहां से कोई अच्छी सी घड़ी ले लेंगे. बेलुर में शाम में खोजा तो घड़ी कि कोई दुकान ना मिली. साथियों में भी किसी के पास घड़ी नहीं थी. फिर सोचा कि चलो कल सेंटर पर पहले जायेंगे और वहीँ से ले लेंगे. तो वाकया हुआ कि पहले ही दिन मैं और रविकांत बस में ओवरकैरी हो गए. फिर से लौट के जब सेंटर पहुचे तो पता चला कि समय बिलकुल नही बचा है. खैर, उपरवाले का नाम ले बैठे परीक्षा में. सामान्य अध्ययन की परीक्षा थी जिसमे समय प्रबंधन काफी महत्वपूर्ण होता है. हॉल में भी घड़ी नही लगी हुई थी. अब मैंने सोचा कि बस तेज रफ़्तार में लिखना है कि कुछ छूटे नहीं. टाइम मैनेजमेंट की तो वैसे ही बिना घड़ी के वाट लग ही चुकी थी.

खैर जब तक एक्साम का पहला घंटा बजा तब तक मैंने दो नंबर वाले टिप्पणी परक सवालों को पूरा करते हुए १०० नंबर के सवाल बना डाले थे. अब मैं थोडा रिलैक्स होकर जवाब लिख रहा था. प्रश्नपत्र काफी अच्छा था और मेरी काफी अच्छी तैयारी थी उस पर. फिर कुछ देर के अंतराल के बाद एक बार और घंटा बजा. मैं पूरी तरह से हडबडा उठा. मुझे लगा कि यह दूसरा घंटा दो घंटे पूरे होने के उपलक्ष्य में लगा है. संयोग ऐसा कि परीक्षक उस समय पास भी नही था और पास के अभ्यर्थी से मैं इस लिए नही पूछ रहा था कि कहीं जवाब पूछने का झूठा आरोप न लग जाये. खैर, मैंने सोचा कि जैसे भी हो, मुझे इस एक घंटे में सारे सवाल हल करने हैं. और, उस हड़बड़ी में मैंने दीर्घ उत्तरीय प्रश्नों को जिनके मैं काफी अच्छे उत्तर लिख सकता था, उन्हें जैसा-तैसा लिख डाला. थोड़ी देर बाद जब घंटा फिर से बजा तो पूरी तरह से कन्फ्यूज था. तब जा कर परीक्षक से पूछ कर पता चला कि अभी दो घंटे हुए हैं और बीच का घंटा डेढ़ घंटे का था. मैंने आधे घंटे में १०० नंबर के सवाल हल किये थे तो उनके स्तर का अंदाजा लगाया जा सकता है. मैंने गुस्से के मारे अपने सर पर हाथ दे मारा. फिर बचे हुए एक घंटे में  बचे हुए ५० नंबर के सवाल हल किये और बाकी के जवाबों के स्तर को जितना सुधार जा सकता था, सुधारा. पर आप लिखे हुए उत्तर में quantity बढ़ा सकते हैं, quality नहीं. आलम यह था कि मैं दस मिनट हाथ में रहते हुए सारे सवालों के जवाब लिख कर बैठा था और अपनी उत्तर पुस्तिका को फिर से दुहराते हुए अपने दीर्घ उत्तरीय जवाबों की गुणवत्ता पर अपने सर नोच रहा था.

पहला पेपर देकर निकला तो मैं अपने ऊपर गुस्से से जल रहा था. इतनी बड़ी लापरवाही मुझसे इतने बड़े दिन होनी थी. पास की दुकान से एक घड़ी खरीद कर लाया पर मैं खुद से काफी अपसेट था. सामान्य अध्ययन का दूसरा प्रश्नपत्र मेरे लिए काफी स्कोरिंग होना चाहिए था क्यूंकि राजनीति विज्ञान मेरा ऐच्छिक विषय था. पर अपसेट होने की वजह से मैंने सांख्यिकी के ४० नंबर के सवालों में लगभग १ घंटे लगा दिए और फिर जो समय के लिए मारा-मारी शुरू हुई उसमें अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्ध, अर्थशास्त्र, विज्ञान और प्रौधोगिकी के सवालों के जवाब अपनी तैयारी की तुलना में कमतर लिखा.  सो, परीक्षा हॉल में घड़ी ना ले जाने की इस गलती ने मुझे कम से कम २०-४० नंबरों का चूना लगाया. पहले पेपर में जहां मैं २२५ या उससे ज्यादा नंबर ला सकता था, वहां २०७ अंक आये और दूसरे पेपर में तो ये आलम रहा कि बस १४० अंक आये जहां कि मेरी तैयारी का स्तर १७०-१८० अंक लाने का था.

खैर, इस गलती से सबक लेते हुए मैंने निबंध पात्र में थोडा सा रिस्क लिया. निबद्ध के ६ टॉपिक्स में दो विषय मैं काफी अच्छे से लिख सकता था- एक विषय भारत में पंचायती राज के बारे में था जो मैं राजनीति विज्ञान का होने के कारण काफी अच्छे से लिख सकता था. दूसरा विषय था –“बच्चों में स्वतंत्र विचार शक्ति को शुरू से ही प्रोत्साहित करना चाहए”. मैंने सोचा कि दूसरे विषय में मेरी कल्पना के लिए काफी गुंजाईश है और इसमें संभावना है कि मैं २०० में १२० से ज्यादा नंबर ला सकूं. मेरा इस निर्णय ने वाकई मेरा साथ दिया क्यूंकि निबंध में मैंने १४३ नंबर लाए. सामान्य अध्ययन पेपर में जो नंबर अपनी भूल से खोये थे, उसकी थोड़ी सी भरपाई इस तरह हुई.

सामान्य अंग्रेजी का प्रश्न पत्र इतना हल्का था कि मैंने एक घंटे में बना डाला. एक्साम हॉल से ३ घंटे पूरा होने के पहले जाने कि अनुमति ना होने की वजह से बाकी के दो घंटे आराम से लेट कर बिताए. आस-पास के अभ्यर्थी सोच रहे थे कि शायद बंदा अंग्रेजी में फेल होने की तैयारी में है. खैर, सामान्य हिंदी का पेपर मैंने टाइम पास करने के ख्याल से काफी धीरे-धीरे २ घंटे में लिखा.

फिर हिंदी साहित्य के पेपर में पहला पेपर तो सही गया, मगर एक छोटी सी भूल वहां भी थी. साधारणतः हम लोग पिछले साल पूछे गए प्रश्नों के बारे में मान कर चलते है कि वे इस साल नही ही आयेंगे. इस पेपर में पिछले साल के दो-तीन प्रश्न थे जिनके जवाब थोड़े मध्यम हो गए. दूसरे पेपर में पेपर हाथ में आने के साथ ही मेरा मन खुश हो गया. हर सवाल का काफी अच्छा जवाब में लिख सकता था. और फिर अति आत्मविश्वास का शिकार तो बनना ही पड़ता है. साहित्य के पात्र में व्याख्या के प्रश्न सबसे ज्यादा अंक दिलाने वाले होते है और उन्हें सबसे पहले हल करना चाहिए. दीर्घ उत्तरीय प्रश्न इतने ललचाने वाले थे कि मैंने उनसे शुरुआत कर दी. और, सवालों के जवाब ज्यादा जानने की वजह से लंबे होते चले गए. नतीजा यह हुआ कि व्याख्या के लिए मेरे पास काफी कम समय बचा. जानते हुए भी गद्य खंड की व्याख्या काफी संक्षेप में लिखी और पद्य खण्डों की व्याख्या भी अपनी संतुष्टि के हिसाब से नहीं लिखी. हिंदी में पहले पेपर में मेरे १६७ और दूसरे पेपर में १६६ नंबर आये. दूसरे पेपर में अगर मैंने व्याख्या पहले लिखी होती तो कम-से-कम १०-१५ नंबर ज्यादा आने की सम्भावना थी. वाकई, एक्साम हॉल की आपकी रणनीति की छोटी-से-छोटी चूक आपके लिए काफी भारी पड़ सकती है.

राजनीति विज्ञान की परीक्षा देशव्यापी हड़ताल की वजह से एक महीने के लिए बढ़ गयी. लेकिन इस समय का मैंने सही सदुपयोग नहीं किया. राजनीति सिद्धांत मेरी कमजोर कड़ी था क्यूंकि यह हिस्सा मुझे थोडा बोर करता था. इस समय को मुझे रिविजन में लगाना चाहिए था पर मैं बाकी हिस्सों पर लगा रहा. सो, राजनीति विज्ञान का दूसरा पेपर तो अच्छा गया पर पहले पेपर में मेरे पास दो दीर्घ उत्तरीय प्रश्नों में एक को लिखने का आप्शन था –एक था कौटिल्य का सप्तांग सिद्धांत और दूसरा था कि “मैकियावेली की थियोरी संकीर्णत: काल बद्ध और स्थानबद्ध है. पहले सवाल में मुझे सप्तांग सिद्धांत में बस ५ ही याद आ रहे थे, दूसरा सवाल बहुत ज्यादा पकड़ में नही था. १२ मिनटों का समय बचा था और मैंने एक दूसरे सवाल को लिखने का फैसला लिया. यह एक गलत फैसला था, सप्तांग सिद्धांत वाले जवाब में मैं ६० अंकों में कम से कम २५-३० अंक ला पता पर मैकियावेली वाला सवाल का मैंने जो जवाब लिखा उसमे मैंने खुद को बस १३ अंक दिए थे. इस पत्र में मुझे बस १३२ अंक प्राप्त हुए.

खैर, मुख्य परीक्षा देने के बाद मैंने अपन स्व-मूल्यांकन किया और मैं पूरी तरह आश्वस्त था कि साक्षात्कार के लिए मेरा बुलावा जरुर आएगा. मैं अपनी ड्यूटी के साथ उसकी तैयारियों में लगा हुआ था. मैंने एक नोट बुक में अपने बायो-डाटा के सारे विवरणों के बारे में जरुरी जानकारी जुटायी. साथ ही सारे संभावित प्रश्न तैयार कर उनके उत्तरों का अभ्यास किया.

मुख्य परीक्षा के रिजल्ट के बाद मैंने और रविकांत ने आपस में मौक इंटरव्यू की खूब प्रैक्टिस की और इसमें रेलवे के सहकर्मियों का भी काफी सहयोग मिला. अब तक हमारी सफलता के सफर को देख कर वे भी काफी उत्साहित थे और उनकी शुभकामनाएँ हमारे साथ थी. साक्षात्कार के १०-१२ दिन पहले हम दोनों दिल्ली आ गए और फिर मस्ती के साथ साथियों के साथ थोड़ी-बहुत तैयारी में लगे. अभ्यास के लिए दो कोचिंग संस्थाओं में ५०० रूपये देकर दो मौक इंटरव्यू भी किये. हालाँकि बाद में जब इन संस्थाओं ने हमारी सफलता को अपना बताने की कोशिश की तो उनके ऊपर काफी गुस्सा आया. हाँ, इस बात ने दिल्ली की कोचिंग संस्थाओं का असली चेहरा दिखा दिया कि इनके पास चरित्र नाम की चीज काफी कम है.

साक्षात्कार का संक्षिप्त विवरण मैंने अपनी पिछली पोस्ट में दिया है. अपने साक्षात्कार से मैं पूरी तरह संतुष्ट था और अपने मूल्यांकन के हिसाब से मैं आश्वस्त था कि सफलता मुझे मिलकर रहेगी. एक बात मैं अपने स्व-मूल्यांकन के बारे में गर्व से कह सकता हूँ कि मैंने अपने को ११२४ मार्क्स दिए थे और मेरी अंक तालिका में आये अंक ११२९ थे.

हाँ, तो जब १६ मई २००८ को पता चला कि रिजल्ट आज आने की सम्भावना है तो फिर पूरे दिन रिजल्ट का आतुर इंतजार था. खैर, शाम में ८ बजे के आस-पास जब ये पता चला कि रिजल्ट आया है और मेरा ४५ और रविकांत का ७७ वाँ स्थान है तो फिर खुशी का ठिकाना न रहा. फिर तो घर-परिवार के लोगों और अपनों-बेगानों की शुभकामनाओं का लंबा सिलसिला शुरू हुआ.

वाकई. ये मेरी अकेली जीत नही थी. जीत कभी भी अकेले कि नहीं होती, जीत हमेशा सामूहिक होती है. मेरी जीत में न जाने कितने लोगों की जीत शामिल थी. मेरे माँ-बाबूजी, मेरे गुरूजी, मेरे भैया-भाभी, मेरे परिवारवाले, मेरे दोस्त, मेरे शुभचिंतक-ये सब मेरे साथ जीते हैं और उनके चेहरे पर चमकती खुशी ही मुझे सबसे ज्यादा आनंद देती है.
अपने पहले प्रयास में पाई इस सफलता में कई मिथक ध्वस्त हुए थे –एक तो मेरी शिक्षा किसी नामी-गिरामी संस्थान से नही थी, यहाँ तक कि अपनी स्नातक की डिग्री मैंने पत्राचार माध्यम से इग्नू से ली, यह सफलता बिना किसी कोचिंग संस्थान की वैशाखियों के सहारे थी, साथ ही यह सफलता मैंने दिल्ली या किसी बारे शहर में सुख-सुविधाओं के बीच रहकर नही पाई थी, वरन मैं कोलकाता के एक सुदूर पिछड़े जिले में रेलवे की श्रमसाध्य नौकरी के साथ अपनी तैयारी कर रहा था जहां हिंदी माध्यम की किताबें तो दूर, पत्र-पत्रिकाओं के लिए भी काफी पापड़ बेलने पड़े थे. बस, मन में एक जूनून था, एक लगन थी और था कुछ हट के करने का जज्बा.

हमारी सफलता के अनूठेपन ने मीडिया की सुर्खिया भी खूब बटोरी. हिंदी,बांग्ला और अंग्रेजी के तमाम समाचार पत्रों ने पहले पन्ने पर केशवेंद्र और रविकांत की जोड़ी की सफलता की खबरे छापी. NDTV और बांग्ला समाचार चैनलों में हमारी सफलता की कहानी आयी. सहारा समय में हम दोनों का लाइव साक्षात्कार आया. इग्नू के तरफ से दिल्ली में बुला कर हमें सम्मानित किया गया. सबसे बड़ी बात की इस सफलता ने उन सारे युवाओं को प्रेरणा दी जो नौकरी की बाध्यताओं या अपने परिवार की आर्थिक पृष्ठभूमि के कारण अपने सपनों को पूरा करने की हिम्मत हार रहे थे. इस सफलता की सारी शुभकामनाओं में सबसे मार्मिक जो शुभकामना लगी, उसे आप लोगों के सामने पेश कर रहा हूँ-
यह पत्र था दक्षिण पूर्व रेलवे के आद्रा मंडल में संथाल्दीह स्टेशन पर मुख्य बुकिंग पर्यवेक्षक मार्टिन जॉन की जो हिंदी के अच्छे लेखक भी है. उनकी ३१-५-२००८ की लिखी चिठ्ठी आप लोगों के सामने है-
प्रियवरद्वय,
केशवेंद्र और रविकान्त,
सस्नेहभिवादन,

सिविल सेवा परीक्षा में तुम दोनों का ससम्मानित स्थान में चयन होने की खबर निश्चित रूप से भारतीय रेल के वाणिज्य संस्थान को गौरवान्वित करने वाली खबर है ...अपने शैक्षणिक काल और रेल सेवा के शुरुआती दौर में हम जैसे महत्वाकांक्षी और स्वप्नदर्शी रेलकर्मी तुम दोनों की बुलंद कामयाबी को अपने सपनों को ताबीर में तब्दील होने जैसे अहसास से भरापूरा महसूस करने लगे हैं.
वाकई तुम दोनों मिसाल हो कुछ कर दिखाने के हौसले से लैस नवागत रेलकर्मियों के लिए.
हाशिये से सुर्ख़ियों में आने बधाइयों, तारीफों, शुभकामनाओं की रेलमपेल और ‘अनियंत्रित भीड़’ में तहे दिल से निकली हमारी बधाइयों और सद्कामनाओं को भी थोड़ी सी जगह जरुर देना.

तुम दोनों की कामयाबी पर अपनी ताजा पंक्तियाँ –

वक्त के सीने में एक निशां बनाया है तुमने
तूफां में भी इक चराग जलाया है तुमने
गुलशन है तो गुल खिलाना क्या मुश्किल,
पत्थर पे भी इक फूल खिलाया है तुमने,
किनारे खड़े समंदर के सोचते सब हैं
उतर के गहरे मोती ढूंढ लाया है तुमने.

आगे भी जंग जीतने और फ़तह हासिल करने की दुआ के साथ,
तुम दोनों का,
मार्टिन जॉन.

तो साथियों, ये थी मेरी और रविकांत की कहानी, बस आपलोगों के सपनों और संघर्ष के लिए यही कहूँगा कि-


सपने सच होते है, होंगे सच तुम्हारे भी, यक़ीनन यारों
बस उनकी सच्चाई में यकीन जरा दिल से किया करो.
30-8-2011 & 04-09-2011