रविवार, 4 सितंबर 2011

स्वप्न सच होते हुए


स्वप्न सच होते हुए

साथियों, एक लंबी चुप्पी के बाद मैं फिर से आप लोगों से इस ब्लॉग पर मुखातिब हो रहा हूँ. अभी फ़िलहाल केरल में होने की वजह से मैं सिविल सेवा की तैयारी के माहौल से थोडा सा कटा हुआ हूँ, पर फिर भी तैयारी में लगे युवा साथियों को प्रेरित करने का काम तो किया ही जा सकता है.

सबसे पहले तो मैं उन प्रतिभागियों को बधाई देना चाहूँगा जिन्होंने इस बार की प्रारंभिक परीक्षा में सफलता पाई है. और जो इस बार इस पड़ाव को पार नही कर पाए हैं, उनको बस यही कहना चाहूँगा कि “कोशिश करने वालों की हार नही होती.”

हाँ, इस बार मैं मुखातिब हो रहा हूँ उन लोगों से जो सिविल सेवा में आने का सपना तो देखते हैं पर जो अपनी परिस्थितियों के आगे मजबूर हैं, जिन्हें लगता है कि ज़माने की बाधाओं से वे अपने इस सपने को पूरा करने में सफल नहीं हो पाएंगे. मैं आपको सुनाता हूँ केशवेंद्र और रविकांत की कहानी.. सपनों के सच होने की कहानी.

केशवेंद्र यानि मैं बिहार के सीतामढ़ी जिले के एक मध्यमवर्गीय परिवार से आता हूँ. बचपन से ही अपने गुरुदेव नागेन्द्र सिंह के आशीर्वाद से हिंदी साहित्य में मेरी गहरी रूचि रही और बचपन प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, शरतचंद, रविन्द्र , दिनकर, निराला के साहित्य के सान्निध्य में गुजरा. माता-पिता की आँखों में सपना था कि उनके तीनों बच्चे अच्छी सरकारी नौकरी में आयें और जो संघर्ष उन्हें जीवन में करना पड़ा है, वह उनके बच्चों को  ना करना पड़े.

मेरे बाबूजी प्राइवेट प्रैक्टिस करनेवाले आयुर्वेदिक डॉक्टर हैं और आयुर्वेद के उत्थान-पतन के साथ हमारे घर ने भी अच्छे-बुरे दिन देखे हैं. माँ गृहस्थ महिला है, बहुत ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं है,पर हमेशा उनके होठों से हम बच्चों के लिए यही दुआ निकली कि बेटा, पढ़-लिख कर बड़ा ऑफिसर बन जा. पिता जी की  दूरदर्शी सोच ने शिक्षा को सबसे ज्यादा महत्व दिया और हम तीन भाइयों की पढ़ाई के लिए उन्होंने हमारे गांव के शिक्षक नागेन्द्र सिंह को रखा. गुरूजी की तारीफ में यही कहूंगा कि उन्हें बच्चों को पढ़ाने की कला बखूबी आती थी और वो बच्चों को बच्चा बनकर पढाने में यकीन रखते थे. साथ ही साहित्य और अध्यात्म में उनके लगाव ने हम तीनों भाइयों को गहरे तक प्रभावित किया. गीता और रामचरितमानस का सुंदरकांड गुरूजी की दुआ से हमारे जीवन का अभिन्न अंग बने.

मेरे जीवन को प्रभावित करने वाली एक और व्यक्तित्व के तौर पर मैं अपने नानाजी श्री उमेश चंद्र ठाकुर का नाम लेना चाहूँगा. नानाजी पुस्तकों के बहुत बड़े प्रेमी थे और बचपन में मैं जब भी ननिहाल जाया करता था, पुस्तकों के ढेर के साथ लौटता था. राजेंद्र प्रसाद की आत्मकथा का १९४७ का संस्करण, भागवद गीता एज ईट इज, सोमनाथ, भारतेंदु के सम्पूर्ण नाटक, निराला की अनामिका और अपरा, गाँधी जी की दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास जैसी कितनी किताबें उनके यहाँ से लाके पढ़ी होगी मैंने. उनसे पुस्तकों का यह प्रेम मुझे उपहार में मिला और इसने मेरे जीवन को कितना खुशहाल बनाया है यह मैं बता नहीं सकता. नानाजी की धर्म के प्रति तार्किक दृष्टि और वेद, उपनिषद, गीता की उनकी सटीक व्याख्या ने भी सभी धर्मों के प्रति एक आलोचनात्मक और स्वस्थ दृष्टिकोण बनाने में योगदान दिया.
पुस्तकों का यह प्रेम बच्चों की कहानी की पत्रिकाओं नंदन, बालहंस, लोटपोट, सुमन सौरव, कॉमिक्स से होता हुआ कादम्बिनी, विज्ञान प्रगति और ढेर सारी पत्रिकाओं के प्रति रहा. समाचार पत्रों के शनिवार और रविवार के विशेषांक भी काफी दिलचस्पी से पढ़ करता था मैं. बड़े भैया से बीबीसी सुनने की आदत लगी जो लंबे समय तक कायम रही.

बचपन से ही भाषण, वाद-विवाद,विज्ञान प्रदर्शनी में मेरी काफी रूचि रही और इन सब के लिए बाबूजी और गुरूजी की तरफ से काफी प्रोत्साहन भी मिला. इन सबमें सबसे बड़ी उपलब्धि मैं १९९८ में बाल विज्ञान कांग्रेस में चेन्नई में राष्ट्रीय स्तर पर भागीदारी को मानता हूँ. सरकारी स्कूलों में पढ़ कर भी इन उपलब्धियों की चमक ने मेरे आत्मविश्वास को हमेशा बुलंद रखा. यही वो समय था जब जिला स्तर की प्रतियोगिताओं में आईएस, IPS अधिकारीयों के हाथ से  पुरस्कार ग्रहण करते हुए मेरे मन में आता था कि इक दिन मैं भी इसी तरह बच्चों को पुरस्कार दे रहा होऊंगा.

बचपन से सातवीं कक्षा तक मैं रीगा मध्य विद्यालय का छात्र रहा, आठवीं कक्षा बभनगामा उच्च विद्यालय में गुजरी जो अपने अतीत के गौरव की जर्जर निशानी भर रह गया था. फिर नवमीं कक्षा में मैंने जिला स्कूल डुमरा में दाखिला लिया. आठवीं- दशमी कक्षा को मैं अपने शैक्षणिक जीवन के लिए बहुत अच्छा नही मानता. इन दो सालों में बहुत सारी बातों की वजह से मेरा प्रदर्शन बहुत अच्छा नहीं रहा, पर यही वो समय भी था जब मैंने अपने जीवन की दिशा निर्धारित की. बिहार के मध्यमवर्गीय परिवारों में सामान्य चलन है कि मैट्रिक की परीक्षा पूरी करने के बाद अगर बच्चा मेधावी है तो उसे इंजिनिअर-डॉक्टर बनाने की कवायद चालू हो जाती है. वहां पर मैंने लीक से हट कर कुछ नया सोचा.

यह वो समय था जब मेरे मन में सिविल सेवा की तैयारी कर आईएस बनने की बात कहीं-न-कहीं आ चुकी थी. पर मैं यह तैयारी अपने पैरों पर खड़े होकर करना चाहता था. अपने परिवार की आर्थिक स्थिति मैं देख रहा था और मैं अपने माता-पिता पर और बोझ नहीं बढ़ाना चाहता था. और जो राह मैंने चुनी, वह थी नौकरी में आकर सिविल सेवा की तैयारी करने की राह.

उस समय रेलवे में एक वोकेशनल कोर्स हुआ करता था-“ वोकेशनल कोर्स इन रेलवे कौमर्शिअल.” रेलवे के उस समय के ९ जोन रेलवे रिक्रूटमेंट बोर्ड के जरिये हर वर्ष इस कोर्स की ४० सीटों के लिए परीक्षा आयोजित किया करते थे जिसमें मैट्रिक की परीक्षा में उस साल शामिल होने वाले छात्र शामिल हो सकते थे. लिखित और मौखिक परीक्षा को पास करने और मैट्रिक की परीक्षा में ५५% अंक लाने पर इस कोर्से में ४० छात्रों को एक जोन में दाखिला मिलता था. फिर आपको सीबीएसई से आई-कॉम की परीक्षा ५५% अंकों के साथ उत्तीर्ण करने पर रेलवे में टिकट कलेक्टर या कौमर्शिअल क्लर्क के रूप में नियुक्ति मिलती थी.
मेरे मझले भैया इस परीक्षा को पास कर यह कोर्स कर रहे थे. मैंने भी निश्चय किया कि मैं इस जॉब को हासिल करने के बाद फिर अपने सपनों को पूरा करने को कदम आगे बढ़ाऊंगा. सो, मैट्रिक परीक्षा की तैयारी के साथ-साथ मैंने इस परीक्षा की भी तैयारी शुरू कर दी. इस परीक्षा की तैयारी मुझे मेरे आगे की तैयारियों के लिए तैयार कर रही थी- मैं अपनी रणनीति बनाकर पूरे सिलेबस को तैयार कर रहा था. और,पूर्व रेलवे की इस परीक्षा में सफलता पा कर मैं बिहार से बाहर कलकत्ता के बैरकपुर में भोलानंदा विद्यालय में अपने आगे की पढाई पूरी करने आ गया.   

बैरकपुर के दो साल मस्ती के नाम रहे. बिहार से बंगाल का यह सफर काफी बदलाव भरा था. हालाँकि, बैरकपुर में बिहार और उत्तर प्रदेश के ढेर सारे लोग भरे हुए थे, फिर भी बांग्ला भाषा से तो पाला पड़ ही रहा था. ऊपर से अंग्रेजी नही आने से स्कूल में भी शुरू में काफी संघर्ष करना पड़ा. पर, इन दो सालों ने ठीक-ठाक अंग्रेजी लिखना-पढ़ना सिखा दिया. हिंदी माध्यम से अंग्रेजी माध्यम में यह बदलाव भी अच्छा ही रहा. अब भी टाइम्स ऑफ इंडिया पेपर से दो-दो घंटे जूझने के दिन याद आते हैं तो खूब हंसी आती है. बैरकपुर की मस्ती में सिविल सेवा की तैयारी का लक्ष्य आँखों से थोडा ओझल सा हो गया. हाँ, इस दौर में डायरी लिखने और कवितायेँ लिखने में खूब दिल लगाया. और यही वाह समय था जब कोलकाता के पुस्तक मेलों से परिचय हुआ. दीवानों की तरह दो-दो दिन घूम कर किताबों की ढेर अपने संग्रह में खरीदना मेरे जीवन के सबसे यादगार अनुभवों में एक है. इसी समय हिंदी साहित्य की कई अच्छी पत्रिकाओं से नाता बना जो अब तक चल रहा है. दुर्गा पूजा की धूम, गोलगप्पों का स्वाद, साथियों के साथ हुगली नदी में रात में नौका भ्रमण, शांतिनिकेतन, और कोलकाता भ्रमण की यादें अब भी मन को लुभाती है. सिनेमा भी कम नही देखे वहां पर. और जब मन करे बैग उठा कर घर चल देना, ट्रेन तो अब अपनी ही थी. गाँधी संग्रहालय, साइंस म्युजिअम, विक्टोरिया मेमोरिअल, दक्षिणेश्वर, बेलुर मठ, तारापीठ, काली घाट, इंडियन म्युजिअम भुलाने की चीजें नहीं हैं.

बैरकपुर से आई-कॉम पूरा करने के बाद घर आया तो नौकरी में आने तक के ५-६ महीने को मैंने काफी अच्छे से यूज किया. इस समय में मैंने सनातन धर्म पुस्तकालय से ढेर सारी हिंदी साहित्य की किताबें पढ़ी और अरुण सर की कोचिंग में अंग्रेजी बोलने का अभ्यास किया. कुछ काफी अच्छे दोस्त मिले-मृत्युंजय, एजाज़, सरिता, मनीष आदि. साथ ही IGNOU से हिंदी स्नातक में दाखिला भी ले लिया. हिंदी विषय लेने पर घर-समाज के लोगों ने थोड़ी हाय-तौबा मचायी पर मैंने तो यह निर्णय काफी सोच-समझ कर लिया था, और किसी के कहने-सुनने से अपने सही निर्णय को ना बदलना शुरू से ही मेरी फितरत रही है.

२७ अप्रैल २००४ से मैंने सरकारी सेवा में अपने जीवन की शुरुआत की. छोटी से ट्रेनिंग के बाद मुझे कोलकाता के बीरभूम जिले में सिउरी रेलवे स्टेशन पर बुकिंग क्लर्क के रूप में नियुक्ति मिली. शुरुआत में भाषा की वजह से थोड़ी दिक्कतें आयी पर फिर धीरे-धीरे सब कुछ सही हो गया. स्टेशन पर १२ घंटे का रोस्टर था, बीच में नियमानुसार ब्रेक होने चाहिए थे पर नयी गाड़ियों के कारण थे नहीं. ड्यूटी के साथ-साथ जो पहली प्राथमिकता थी, वो थी समय पर अपने स्नातक डिग्री को पूरा करना और वो मैंने किया.

सिविल सेवा में एक विषय के तौर पर हिंदी को चुनने के बारे में तो मैं शुरू से ही निश्चिन्त था पर दूसरे विषय के तौर पर इतिहास या राजनीति विज्ञान को चुनने में मैं काफी समय तक दुविधा में रहा. खैर, अंततः मुख्य परीक्षा में राजनीति विज्ञान से सामान्य अध्ययन में काफी सहायता मिलती देख मैंने उसे ही चुनने का निर्णय लिया. कोलकाता पुस्तक मेला और पटना में अशोक राजपथ की किताब की दुकानों में घूम-घूमकर लगभग सारी पुस्तकें जुटायी . साथ ही सिउरी में विवेकानंद ग्रंथागार तथा जिला पुस्तकालय का सदस्य बन कर भी काफी जरुरी किताबों और साहित्य का अध्ययन किया.

इस बीच में एक और बात ने मुझे सिविल सेवा की तैयारी करने को प्रेरित किया. पास के स्टेशन दुबराजपुर में मुझे काफी लंबे समय तक ड्यूटी करने को जाना पड़ा (२००६ की शुरुआत से) जहां १२ घंटे के रोस्टर की वजह से मैं सुबह ५ बजे ट्रेन से जाकर शाम में ६:३० बजे के आस-पास लौट पता था. उसमें भी रेस्ट बस एक ही दिन का था. इस मुद्दे को मैंने रेल प्रशासन के सामने कई बार उठाया पर उनका असंवेदनशील रवैया देख गुस्से में मन जल भुन उठा. मैंने इस गुस्से को भी अपनी तैयारी कि प्रेरणा बनाया. प्यार तो इस तैयारी की प्रेरणा था ही.

यह मेरी तैयारी का मुख्य समय था, सिउरी में स्टेशन प्रबंधक सुभाष दा के रूप में मुझे एक काफी अच्छे इंसान मिले थे जिनके साथ मैं अपनी भावनाओं को शेयर कर पता था और जो मेरा हौसला भी बढ़ाते थे. बादल दा और उनकी मंडली के तौर पर अच्छे साथी मिले थे जिनके साथ शाम में लौटते हुए अच्छा मनोरंजन होता था. साथ ही सिउरी स्टेशन पर अनंत दा की तितली की पाठशाला जो बाल श्रमिकों और यौन कर्मियों के बच्चों के लिए थी, का सदस्य बन कर भी काफी अच्छा लगा.

जून २००६ तक तो अपनी तैयारी जैसी-तैसी ही रही पर उसके बाद गंभीरता का स्तर बढ़ना शुरू हुआ. यह वह समय था जब मैं दो ट्रेनों के बीच के समय और ट्रेन में आने-जाने के बीच के समय में भी अपने अध्ययन में लगा रहता था. रविकांत मुझसे १ घंटे की ट्रेन यात्रा की दूरी पर उखड़ा स्टेशन पर बुकिंग क्लर्क के रूप में कार्यरत थे. २००६ की प्राथमिक परीक्षा में अपने प्रथम प्रयास में रविकांत की सफलता ने हम दोनों को काफी उत्साहित किया. रविकांत आशा-निराशा के बीच झूल रहे होने के कारन अपने कीमती दो महीनों का समय गवां चुके थे. खैर, उनकी हिंदी विषय की तैयारी को धार देने के लिए मैंने सप्ताह में एक बार उखड़ा जाकर वहां साथ-साथ रणनीति के साथ तैयारी की योजना बनायीं.

तैयारी के सिलसिले में विघ्न-बाधाएं कम नहीं थी. एक और तो बुकिंग क्लर्क के रूप में लगभग १० घंटे के आस-पास की पब्लिक डीलिंग की टफ जॉब, दूसरी और बंगाल के सुदूर जिले में होने के कारण हिंदी माध्यम की किताबों और पत्र-पत्रिकाओं की अनुपलब्धता. हाल यह था कि सारी-की-सारी पत्रिकाएँ मैं पोस्ट से मंगा रहा था. ऊपर से प्रोत्साहित करने वाले लोग कम और टांग खिंचाई करने वाले लोग ज्यादा थे. हमारे सपनों को शेखचिल्ली के हसीन सपने समझने वाले लोगों की कमी ना थी. खैर उनका मुँह हम अपनी सफलता से हमेशा के लिए बंद करना चाहते थे.

तैयारी के लिए मेरी रणनीति पाठ्यक्रम, बीते सालों के प्रश्नपत्र और फिर स्तरीय पुस्तकों से सिलेबस के सम्यक अध्ययन पर केंद्रित थी. रणनीति के लिए एक अलग डायरी बना कर राखी थी जिसमें अपने हर सबल और दुर्बल पक्ष का सम्यक विश्लेषण और अपने लिए रणनीति थी. यह वाह समय था जब रात को सबके सो जाने के बाद अपने क्वार्टर से बाहर निकल पीपल और बरगद के विशाल वृक्षों की छाँव और ठंडी हवा में टहलता हुआ मैं अपनी रणनीति बनाया करता था कि किस तरह मैं सिविल सेवा में टॉप कर सकता हूँ और उसके लिए किस विषय में मुझे कितने नंबर लाने होंगे. हिंदी के लिए तो धीरे-धीरे कर मैंने सारी किताबें जुटा ली थी, IGNOU के बी.ए और ऍम.ए के स्तरीय किताबों की उपलब्धता भी एक प्लस पॉइंट थी. पर राजनीति विज्ञान के लिए किताबों का संकलन बहुत अच्छा ना था. सिलेबस के कुछ पॉइंट कवर नहीं हो पा रहे थे. तब जाकर प्राथमिक परीक्षा के १५ दिनों पहले मझले भैया से ओ. पी. गाबा की तीन-चार किताबें मंगवाई जिससे राजनीतिक सिद्धांत वाले सारे मुद्दे कवर हुए.

प्राथमिक परीक्षा के लिए शायद १२-१५ दिनों की छुट्टी ली थी और यह सारा समय मैंने मुख्यतः राजनीति विज्ञान के छूटे हुए बिंदुओं को कवर करने में लगाया. यही वजह थी कि मैं सामान्य अध्ययन के रिविजन पर पूरा ध्यान नही दे पाया. खैर मेरी रणनीति थी १५० अंकों के सामान्य अध्ययन में ७५ अंक लाने की और ३०० अंकों के राजनीति विज्ञान में २२५ अंक लाने की. २००७ में पहली बार निगेटिव मार्किंग का प्रावधान किया गया था. उसे ध्यान में रखते हुए ४५० अंकों में ३०० अंक लाने का लक्ष्य पूरी तरह सुरक्षित था.

परीक्षा केंद्र मैंने कोलकाता में रखा था. परीक्षा के लिए गोले रंगने की काफी प्रैक्टिस की थी. खैर सेंटर पर मुझे और मेरे जैसे कुछ कम उम्र लोगों को देख कर परीक्षक ने मजाक में टिप्पणी की कि अगर ये लोग आईएस बन गए तो क्या होगा..मैंने तपाक  से जवाब दिया कि युवा हाथों में प्रशासन और भी असरदार बनेगा. खैर परीक्षा अच्छे से गयी. परीक्षा के बाद स्व-मूल्यांकन करना मेरी पुरानी आदत रही है. राजनीति विज्ञान में मेरी मार्किंग २१०+ थी और सामान्य अध्ययन में ६१+. कुल योग तो सही था पर सामान्य अध्ययन पेपर में कम नंबर को लेकर मेरे मन में चिंता थी. कहने का मतलब कि मैं प्राथमिक परीक्षा को लेकर पूरी तरह आश्वस्त नहीं था. वैसे भी, यह मेरा पहला प्रयास था.

खैर रिजल्ट के दिन जब धड़कते निगाहों ने कम्प्यूटर स्क्रीन पर पढ़ा कि मेरा नंबर सफल छात्रों की सूची में है तो दिल खुशी से झूम उठा. फिर तो काफी मशक्कत कर लता मैडम (Sr DCM) के सहयोग से छुट्टी मिली और मैं और रविकांत अपनी तैयारियों में जुटे. साधारणतः हमलोग सप्ताह में एक या दो दिन मिलकर अपने पढ़े हुए पर चर्चा करते थे और हिंदी साहित्य तथा सामान्य अध्ययन की साझी तैयारी करते थे. निबंध के पात्र में भी हम लोगों ने कुछ महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर निबंध की रूप-रेखा बना कर तैयारी की. पर समयाभाव के कारण हमलोग बस पढ़ कर कम चला रहे थे, लिखने की प्रैक्टिस काफी कम हो रही थी. मैंने हालाँकि जेरोक्स के पन्नों पर अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्ध, हिंदी में साहित्यकारों के ऊपर तथा वैसे विषयों पर नोट्स बनाये थे जिनपर जानकारी बहुत सारी किताबों में बिखरी पड़ी थी. 

मुख्य परीक्षा का केंद्र कोलकाता में था. परीक्षा के एक-दो दिन पहले मैं और रविकांत वहां पहुचे और वहां पर अपने रेलवे के दोस्तों उपेन्द्र और विवेकानंद के यहाँ रुके. पास में ही बेलुर मठ था, शाम में तैयारी की टेंशन और थकान मिटने तथा गंगाजी के सान्निध्य का आनंद लेने हमलोग वहां जाया करते थे.
थोड़ी चर्चा अपनी एक बड़ी भूल या लापरवाही की भी कर लूं. मोबाइल के ज़माने में साधारणतः कलाई घड़ी की आदत छूट सी गयी है लोगों में. ऐसा ही मेरे साथ भी हुआ था. सिउरी में याद आया तो मैंने सोचा कि कोलकाता जा ही रहे है, वहां से कोई अच्छी सी घड़ी ले लेंगे. बेलुर में शाम में खोजा तो घड़ी कि कोई दुकान ना मिली. साथियों में भी किसी के पास घड़ी नहीं थी. फिर सोचा कि चलो कल सेंटर पर पहले जायेंगे और वहीँ से ले लेंगे. तो वाकया हुआ कि पहले ही दिन मैं और रविकांत बस में ओवरकैरी हो गए. फिर से लौट के जब सेंटर पहुचे तो पता चला कि समय बिलकुल नही बचा है. खैर, उपरवाले का नाम ले बैठे परीक्षा में. सामान्य अध्ययन की परीक्षा थी जिसमे समय प्रबंधन काफी महत्वपूर्ण होता है. हॉल में भी घड़ी नही लगी हुई थी. अब मैंने सोचा कि बस तेज रफ़्तार में लिखना है कि कुछ छूटे नहीं. टाइम मैनेजमेंट की तो वैसे ही बिना घड़ी के वाट लग ही चुकी थी.

खैर जब तक एक्साम का पहला घंटा बजा तब तक मैंने दो नंबर वाले टिप्पणी परक सवालों को पूरा करते हुए १०० नंबर के सवाल बना डाले थे. अब मैं थोडा रिलैक्स होकर जवाब लिख रहा था. प्रश्नपत्र काफी अच्छा था और मेरी काफी अच्छी तैयारी थी उस पर. फिर कुछ देर के अंतराल के बाद एक बार और घंटा बजा. मैं पूरी तरह से हडबडा उठा. मुझे लगा कि यह दूसरा घंटा दो घंटे पूरे होने के उपलक्ष्य में लगा है. संयोग ऐसा कि परीक्षक उस समय पास भी नही था और पास के अभ्यर्थी से मैं इस लिए नही पूछ रहा था कि कहीं जवाब पूछने का झूठा आरोप न लग जाये. खैर, मैंने सोचा कि जैसे भी हो, मुझे इस एक घंटे में सारे सवाल हल करने हैं. और, उस हड़बड़ी में मैंने दीर्घ उत्तरीय प्रश्नों को जिनके मैं काफी अच्छे उत्तर लिख सकता था, उन्हें जैसा-तैसा लिख डाला. थोड़ी देर बाद जब घंटा फिर से बजा तो पूरी तरह से कन्फ्यूज था. तब जा कर परीक्षक से पूछ कर पता चला कि अभी दो घंटे हुए हैं और बीच का घंटा डेढ़ घंटे का था. मैंने आधे घंटे में १०० नंबर के सवाल हल किये थे तो उनके स्तर का अंदाजा लगाया जा सकता है. मैंने गुस्से के मारे अपने सर पर हाथ दे मारा. फिर बचे हुए एक घंटे में  बचे हुए ५० नंबर के सवाल हल किये और बाकी के जवाबों के स्तर को जितना सुधार जा सकता था, सुधारा. पर आप लिखे हुए उत्तर में quantity बढ़ा सकते हैं, quality नहीं. आलम यह था कि मैं दस मिनट हाथ में रहते हुए सारे सवालों के जवाब लिख कर बैठा था और अपनी उत्तर पुस्तिका को फिर से दुहराते हुए अपने दीर्घ उत्तरीय जवाबों की गुणवत्ता पर अपने सर नोच रहा था.

पहला पेपर देकर निकला तो मैं अपने ऊपर गुस्से से जल रहा था. इतनी बड़ी लापरवाही मुझसे इतने बड़े दिन होनी थी. पास की दुकान से एक घड़ी खरीद कर लाया पर मैं खुद से काफी अपसेट था. सामान्य अध्ययन का दूसरा प्रश्नपत्र मेरे लिए काफी स्कोरिंग होना चाहिए था क्यूंकि राजनीति विज्ञान मेरा ऐच्छिक विषय था. पर अपसेट होने की वजह से मैंने सांख्यिकी के ४० नंबर के सवालों में लगभग १ घंटे लगा दिए और फिर जो समय के लिए मारा-मारी शुरू हुई उसमें अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्ध, अर्थशास्त्र, विज्ञान और प्रौधोगिकी के सवालों के जवाब अपनी तैयारी की तुलना में कमतर लिखा.  सो, परीक्षा हॉल में घड़ी ना ले जाने की इस गलती ने मुझे कम से कम २०-४० नंबरों का चूना लगाया. पहले पेपर में जहां मैं २२५ या उससे ज्यादा नंबर ला सकता था, वहां २०७ अंक आये और दूसरे पेपर में तो ये आलम रहा कि बस १४० अंक आये जहां कि मेरी तैयारी का स्तर १७०-१८० अंक लाने का था.

खैर, इस गलती से सबक लेते हुए मैंने निबंध पात्र में थोडा सा रिस्क लिया. निबद्ध के ६ टॉपिक्स में दो विषय मैं काफी अच्छे से लिख सकता था- एक विषय भारत में पंचायती राज के बारे में था जो मैं राजनीति विज्ञान का होने के कारण काफी अच्छे से लिख सकता था. दूसरा विषय था –“बच्चों में स्वतंत्र विचार शक्ति को शुरू से ही प्रोत्साहित करना चाहए”. मैंने सोचा कि दूसरे विषय में मेरी कल्पना के लिए काफी गुंजाईश है और इसमें संभावना है कि मैं २०० में १२० से ज्यादा नंबर ला सकूं. मेरा इस निर्णय ने वाकई मेरा साथ दिया क्यूंकि निबंध में मैंने १४३ नंबर लाए. सामान्य अध्ययन पेपर में जो नंबर अपनी भूल से खोये थे, उसकी थोड़ी सी भरपाई इस तरह हुई.

सामान्य अंग्रेजी का प्रश्न पत्र इतना हल्का था कि मैंने एक घंटे में बना डाला. एक्साम हॉल से ३ घंटे पूरा होने के पहले जाने कि अनुमति ना होने की वजह से बाकी के दो घंटे आराम से लेट कर बिताए. आस-पास के अभ्यर्थी सोच रहे थे कि शायद बंदा अंग्रेजी में फेल होने की तैयारी में है. खैर, सामान्य हिंदी का पेपर मैंने टाइम पास करने के ख्याल से काफी धीरे-धीरे २ घंटे में लिखा.

फिर हिंदी साहित्य के पेपर में पहला पेपर तो सही गया, मगर एक छोटी सी भूल वहां भी थी. साधारणतः हम लोग पिछले साल पूछे गए प्रश्नों के बारे में मान कर चलते है कि वे इस साल नही ही आयेंगे. इस पेपर में पिछले साल के दो-तीन प्रश्न थे जिनके जवाब थोड़े मध्यम हो गए. दूसरे पेपर में पेपर हाथ में आने के साथ ही मेरा मन खुश हो गया. हर सवाल का काफी अच्छा जवाब में लिख सकता था. और फिर अति आत्मविश्वास का शिकार तो बनना ही पड़ता है. साहित्य के पात्र में व्याख्या के प्रश्न सबसे ज्यादा अंक दिलाने वाले होते है और उन्हें सबसे पहले हल करना चाहिए. दीर्घ उत्तरीय प्रश्न इतने ललचाने वाले थे कि मैंने उनसे शुरुआत कर दी. और, सवालों के जवाब ज्यादा जानने की वजह से लंबे होते चले गए. नतीजा यह हुआ कि व्याख्या के लिए मेरे पास काफी कम समय बचा. जानते हुए भी गद्य खंड की व्याख्या काफी संक्षेप में लिखी और पद्य खण्डों की व्याख्या भी अपनी संतुष्टि के हिसाब से नहीं लिखी. हिंदी में पहले पेपर में मेरे १६७ और दूसरे पेपर में १६६ नंबर आये. दूसरे पेपर में अगर मैंने व्याख्या पहले लिखी होती तो कम-से-कम १०-१५ नंबर ज्यादा आने की सम्भावना थी. वाकई, एक्साम हॉल की आपकी रणनीति की छोटी-से-छोटी चूक आपके लिए काफी भारी पड़ सकती है.

राजनीति विज्ञान की परीक्षा देशव्यापी हड़ताल की वजह से एक महीने के लिए बढ़ गयी. लेकिन इस समय का मैंने सही सदुपयोग नहीं किया. राजनीति सिद्धांत मेरी कमजोर कड़ी था क्यूंकि यह हिस्सा मुझे थोडा बोर करता था. इस समय को मुझे रिविजन में लगाना चाहिए था पर मैं बाकी हिस्सों पर लगा रहा. सो, राजनीति विज्ञान का दूसरा पेपर तो अच्छा गया पर पहले पेपर में मेरे पास दो दीर्घ उत्तरीय प्रश्नों में एक को लिखने का आप्शन था –एक था कौटिल्य का सप्तांग सिद्धांत और दूसरा था कि “मैकियावेली की थियोरी संकीर्णत: काल बद्ध और स्थानबद्ध है. पहले सवाल में मुझे सप्तांग सिद्धांत में बस ५ ही याद आ रहे थे, दूसरा सवाल बहुत ज्यादा पकड़ में नही था. १२ मिनटों का समय बचा था और मैंने एक दूसरे सवाल को लिखने का फैसला लिया. यह एक गलत फैसला था, सप्तांग सिद्धांत वाले जवाब में मैं ६० अंकों में कम से कम २५-३० अंक ला पता पर मैकियावेली वाला सवाल का मैंने जो जवाब लिखा उसमे मैंने खुद को बस १३ अंक दिए थे. इस पत्र में मुझे बस १३२ अंक प्राप्त हुए.

खैर, मुख्य परीक्षा देने के बाद मैंने अपन स्व-मूल्यांकन किया और मैं पूरी तरह आश्वस्त था कि साक्षात्कार के लिए मेरा बुलावा जरुर आएगा. मैं अपनी ड्यूटी के साथ उसकी तैयारियों में लगा हुआ था. मैंने एक नोट बुक में अपने बायो-डाटा के सारे विवरणों के बारे में जरुरी जानकारी जुटायी. साथ ही सारे संभावित प्रश्न तैयार कर उनके उत्तरों का अभ्यास किया.

मुख्य परीक्षा के रिजल्ट के बाद मैंने और रविकांत ने आपस में मौक इंटरव्यू की खूब प्रैक्टिस की और इसमें रेलवे के सहकर्मियों का भी काफी सहयोग मिला. अब तक हमारी सफलता के सफर को देख कर वे भी काफी उत्साहित थे और उनकी शुभकामनाएँ हमारे साथ थी. साक्षात्कार के १०-१२ दिन पहले हम दोनों दिल्ली आ गए और फिर मस्ती के साथ साथियों के साथ थोड़ी-बहुत तैयारी में लगे. अभ्यास के लिए दो कोचिंग संस्थाओं में ५०० रूपये देकर दो मौक इंटरव्यू भी किये. हालाँकि बाद में जब इन संस्थाओं ने हमारी सफलता को अपना बताने की कोशिश की तो उनके ऊपर काफी गुस्सा आया. हाँ, इस बात ने दिल्ली की कोचिंग संस्थाओं का असली चेहरा दिखा दिया कि इनके पास चरित्र नाम की चीज काफी कम है.

साक्षात्कार का संक्षिप्त विवरण मैंने अपनी पिछली पोस्ट में दिया है. अपने साक्षात्कार से मैं पूरी तरह संतुष्ट था और अपने मूल्यांकन के हिसाब से मैं आश्वस्त था कि सफलता मुझे मिलकर रहेगी. एक बात मैं अपने स्व-मूल्यांकन के बारे में गर्व से कह सकता हूँ कि मैंने अपने को ११२४ मार्क्स दिए थे और मेरी अंक तालिका में आये अंक ११२९ थे.

हाँ, तो जब १६ मई २००८ को पता चला कि रिजल्ट आज आने की सम्भावना है तो फिर पूरे दिन रिजल्ट का आतुर इंतजार था. खैर, शाम में ८ बजे के आस-पास जब ये पता चला कि रिजल्ट आया है और मेरा ४५ और रविकांत का ७७ वाँ स्थान है तो फिर खुशी का ठिकाना न रहा. फिर तो घर-परिवार के लोगों और अपनों-बेगानों की शुभकामनाओं का लंबा सिलसिला शुरू हुआ.

वाकई. ये मेरी अकेली जीत नही थी. जीत कभी भी अकेले कि नहीं होती, जीत हमेशा सामूहिक होती है. मेरी जीत में न जाने कितने लोगों की जीत शामिल थी. मेरे माँ-बाबूजी, मेरे गुरूजी, मेरे भैया-भाभी, मेरे परिवारवाले, मेरे दोस्त, मेरे शुभचिंतक-ये सब मेरे साथ जीते हैं और उनके चेहरे पर चमकती खुशी ही मुझे सबसे ज्यादा आनंद देती है.
अपने पहले प्रयास में पाई इस सफलता में कई मिथक ध्वस्त हुए थे –एक तो मेरी शिक्षा किसी नामी-गिरामी संस्थान से नही थी, यहाँ तक कि अपनी स्नातक की डिग्री मैंने पत्राचार माध्यम से इग्नू से ली, यह सफलता बिना किसी कोचिंग संस्थान की वैशाखियों के सहारे थी, साथ ही यह सफलता मैंने दिल्ली या किसी बारे शहर में सुख-सुविधाओं के बीच रहकर नही पाई थी, वरन मैं कोलकाता के एक सुदूर पिछड़े जिले में रेलवे की श्रमसाध्य नौकरी के साथ अपनी तैयारी कर रहा था जहां हिंदी माध्यम की किताबें तो दूर, पत्र-पत्रिकाओं के लिए भी काफी पापड़ बेलने पड़े थे. बस, मन में एक जूनून था, एक लगन थी और था कुछ हट के करने का जज्बा.

हमारी सफलता के अनूठेपन ने मीडिया की सुर्खिया भी खूब बटोरी. हिंदी,बांग्ला और अंग्रेजी के तमाम समाचार पत्रों ने पहले पन्ने पर केशवेंद्र और रविकांत की जोड़ी की सफलता की खबरे छापी. NDTV और बांग्ला समाचार चैनलों में हमारी सफलता की कहानी आयी. सहारा समय में हम दोनों का लाइव साक्षात्कार आया. इग्नू के तरफ से दिल्ली में बुला कर हमें सम्मानित किया गया. सबसे बड़ी बात की इस सफलता ने उन सारे युवाओं को प्रेरणा दी जो नौकरी की बाध्यताओं या अपने परिवार की आर्थिक पृष्ठभूमि के कारण अपने सपनों को पूरा करने की हिम्मत हार रहे थे. इस सफलता की सारी शुभकामनाओं में सबसे मार्मिक जो शुभकामना लगी, उसे आप लोगों के सामने पेश कर रहा हूँ-
यह पत्र था दक्षिण पूर्व रेलवे के आद्रा मंडल में संथाल्दीह स्टेशन पर मुख्य बुकिंग पर्यवेक्षक मार्टिन जॉन की जो हिंदी के अच्छे लेखक भी है. उनकी ३१-५-२००८ की लिखी चिठ्ठी आप लोगों के सामने है-
प्रियवरद्वय,
केशवेंद्र और रविकान्त,
सस्नेहभिवादन,

सिविल सेवा परीक्षा में तुम दोनों का ससम्मानित स्थान में चयन होने की खबर निश्चित रूप से भारतीय रेल के वाणिज्य संस्थान को गौरवान्वित करने वाली खबर है ...अपने शैक्षणिक काल और रेल सेवा के शुरुआती दौर में हम जैसे महत्वाकांक्षी और स्वप्नदर्शी रेलकर्मी तुम दोनों की बुलंद कामयाबी को अपने सपनों को ताबीर में तब्दील होने जैसे अहसास से भरापूरा महसूस करने लगे हैं.
वाकई तुम दोनों मिसाल हो कुछ कर दिखाने के हौसले से लैस नवागत रेलकर्मियों के लिए.
हाशिये से सुर्ख़ियों में आने बधाइयों, तारीफों, शुभकामनाओं की रेलमपेल और ‘अनियंत्रित भीड़’ में तहे दिल से निकली हमारी बधाइयों और सद्कामनाओं को भी थोड़ी सी जगह जरुर देना.

तुम दोनों की कामयाबी पर अपनी ताजा पंक्तियाँ –

वक्त के सीने में एक निशां बनाया है तुमने
तूफां में भी इक चराग जलाया है तुमने
गुलशन है तो गुल खिलाना क्या मुश्किल,
पत्थर पे भी इक फूल खिलाया है तुमने,
किनारे खड़े समंदर के सोचते सब हैं
उतर के गहरे मोती ढूंढ लाया है तुमने.

आगे भी जंग जीतने और फ़तह हासिल करने की दुआ के साथ,
तुम दोनों का,
मार्टिन जॉन.

तो साथियों, ये थी मेरी और रविकांत की कहानी, बस आपलोगों के सपनों और संघर्ष के लिए यही कहूँगा कि-


सपने सच होते है, होंगे सच तुम्हारे भी, यक़ीनन यारों
बस उनकी सच्चाई में यकीन जरा दिल से किया करो.
30-8-2011 & 04-09-2011